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अष्टत्रिंशत्तमं पर्व
२५७।। तथा योगं समाधाय कृतप्राणविसर्जनः । इन्द्रोपपादमाप्नोति गते पुण्ये पुरोगताम् ॥१९॥ इन्द्राः स्युस्त्रिदशाधीशास्तेपूत्पादस्तपोबलात् । यः स इन्द्रोपपादः स्यात् क्रियाऽर्हन्मार्गसेविनाम् ॥१११॥ ततोऽसौ दिव्यशय्यायां क्षणादापूर्णयौवनः । परमानन्दसा तो दीप्तो दिव्येन तेजसा ॥१६२॥ अणिमादिभिरष्टाभिर्युतोऽसाधारणैर्गुणैः । सहजाम्बरदिव्यस्रङ्मणिभूषणभूषितः ॥१६३॥ दिव्यानुभावसं भूतप्रभावं परमुद्वहन् । बोबुध्यते तदाऽत्मीयमैन्, दिव्यावधित्विषा ॥१६४॥
इति इन्द्रोपपादक्रिया । पर्याप्तमात्र एवायं प्राप्तजन्मावबोधनः । पुनरिन्द्रामिषेकेण योज्यतेऽमरसत्तमैः ॥१६५॥ दिव्यसंगीतवादित्रमङ्गलोद्गीतिनिःस्वनैः । विचित्रैश्चाप्सरोनृत्तनिवृत्तेन्द्राभिपेचनः ॥११६॥ ति (कि)रीटमुद्वहन् दीप्रं स्वसाम्राज्यैकलाञ्छनम् । 'सुरकोटिभिरारूढप्रमदैर्जयकारितः ॥१७॥ स्रग्बी सदंशुको दीपो भूषितो दिव्यभूषणः । ऐन्द्रविष्टरमारूढो महानेष महीपते ॥१८॥
इति इन्द्राभिषेकः। ततोऽयमानतानेतान् सत्कृत्य सुरसत्तमान् । पदेषु स्थापयन् स्वेषु विधिदाने प्रवर्तते ॥१६॥ स्वविमानद्धिदानेन प्रीणितैर्विबुधैर्वृतः । सोऽनुभुङ्क्ते चिरं कालं सुकृती सुखमामरम् ॥२०॥ तदेतद्विधिदानेन्द्रसुखोदयविकल्पितम् । क्रियाद्वयं समाम्नातं स्वर्लोकप्रभवोचितम् ॥२०१॥
इति विधिदानसुखोदयो।
ऊपर लिखे अनुसार योगोंका समाधान कर अर्थात् मन, वचन, कायको स्थिर कर जिसने प्राणोंका परित्याग किया है ऐसा साधु पुण्यके आगे-आगे चलनेपर इन्द्रोपपाद क्रियाको प्राप्त होता है ॥१९०।। देवोंके स्वामी इन्द्र कहलाते हैं, तपश्चरणके बलसे उन इन्द्रोंमें जन्म लेना इन्द्रोपपाद कहलाता है। वह इन्द्रोपपादक्रिया. अर्हत्प्रणीत मोक्षमार्गका सेवन करनेवाले जीवोंके ही होती है ॥१९१॥ तदनन्तर वह इन्द्र उसी उपपाद शय्यापर क्षण-भरमें पूर्णयौवन हो जाता है और दिव्य तेजसे देदीप्यमान होता हुआ परमानन्दमें निमग्न हो जाता है ॥१९२॥' वह अणिमा महिमा आदि आठ असाधारण गुणोंसे सहित होता है और साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, दिव्यमाला, तथा मणिमय आभूषणोंसे सुशोभित होता है। दिव्य माहात्म्यसे उत्पन्न हुए उत्कृष्ट प्रभावको धारण करता हुआ वह इन्द्र दिव्य अवधिज्ञानरूपी ज्योतिके द्वारा जान लेता है कि मैं इन्द्रपदमें उत्पन्न हुआ हूँ॥१९३-१९४॥ यह इन्द्रोपपाद नामकी तैतीसवीं किया है।
पर्याप्तक होते ही जिसे अपने जन्मका ज्ञान हो गया है ऐसे इन्द्रका फिर उत्तमदेव लोग इन्द्राभिषेक करते हैं ॥१९५।। दिव्य संगीत, दिव्य बाजे, दिव्य मंगलगीतोंके शब्द और अप्सराओंके विचित्र नृत्योंसे जिसका इन्द्राभिषेक सम्पन्न हुआ है, जो अपने साम्राज्यके मुख्य चिह्नस्वरूप देदीप्यमान मुकुटको धारण कर रहा है, हर्षको प्राप्त हुए करोड़ों देव जिसका जयजयकार कर रहे हैं, जो उत्तम मालाएं और वस्त्र धारण किये हुए है तथा देदीप्यमान वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित है ऐसा वह इन्द्र इन्द्रके पदपर आरूढ़ होकर अत्यन्त पूजाको प्राप्त होता है ॥१९६-१९८॥ यह चौंतीसवीं इन्द्राभिषेक किया है।
तदनन्तर नम्रीभूत हुए इन उत्तम-उत्तम देवोंको अपने-अपने पदपर नियुक्त करता हुआ वह इन्द्र विधिदान कियामें प्रवृत्त होता है ॥१९९॥ अपने-अपने विमानोंकी ऋद्धि देनेसे सन्तुष्ट हुए देवोंसे घिरा हुआ वह पुण्यात्मा इन्द्र चिरकाल तक देवोंके सुखोंका अनुभव करता है ।।२००॥ १ गते सति । २ अग्रेसरत्वम् । ३ संभूतं ल०, द०। ४ इन्द्रः। ५ निजविमानैश्वर्यवितरणेन । ६ अमरसंबन्धि ।