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आदिपुराणम् प्रोक्तास्त्वि द्रोपपादाभिषेकदान सुखोदयाः । इन्द्रत्यागाख्यमधुना संप्रवक्ष्ये क्रियान्तरम् ॥२०२॥ किंचिन्मात्रावशिष्ट यां स्वस्यामायुःस्थितौ सुरेट । बुद्ध्वा स्वर्गावतारं स्वं सोऽनुशास्त्यमरानिति २०३ भो भोः सुधाशना यूयमस्माभिः पालिताश्चिरम् । केचित् पिग्रीयिताः केचित् पुत्रप्रीत्योपलालिताः ॥२०४॥ पुरोधोमन्थ्यमात्यानां पदे केचिनियोजिताः । वयस्यपीठ मदीयस्थाने दृष्टाश्च केचन ॥२०५॥ स्वप्राणनिर्विशेषं च केचित् त्रागाय संमताः । केचिन्मान्यपदे दृष्टाः पालकाः स्वनिवासिनाम् ॥२०६॥ केचिच्चमूचरस्थाने केचिच्च स्वजनास्थया । प्रजासामान्यमन्ये च केचिच्चानुचराः पृथक् ॥२०॥ केचित् परिजनस्थाने केचिच्चान्तःपुरे चराः । काश्चिद् वल्लमिका देव्यो महादेव्यश्च काश्चन ॥२०॥ इत्यसाधारणा प्रीतिर्मया युष्मासु दर्शिता । स्वामिमक्तिश्च युष्माभिर्मय्यसाधारणी धृता ॥२०॥ साम्प्रतं स्वर्गभोगेषु गतो मन्देच्छतामहम् । प्रत्यासना हि मे लक्ष्मीरद्य भूलोकगोचरा ॥२१०॥ युष्मत्साक्षि ततः कृत्स्नं स्वःसाम्राज्यं मयोज्झितम् । यश्चान्यो मत्समो भावी तस्मै सर्वसमर्पितम् ॥२११॥ इत्यनुस्सुकतां तेषु भावयन्ननुशिष्य तान् । कुर्वन्निन्द्रपदत्यागं स व्यथां नैति धीरधीः ॥२१२॥ इन्द्रस्यागक्रिया सैषा तत्स्व गातिसर्जनम् । धीरास्त्यजन्त्यनायासादैश्यं तादृशमप्यहो ॥२१॥
इति इन्द्रत्यागः। इस प्रकार स्वर्गलोकमें उत्पन्न होनेके योग्य ये विधिदान और इन्द्र सुखोदय नामकी दो कियाएँ मानी गयी हैं ॥२०१॥ ये पैंतीसवीं और छत्तीसवीं विधिदान तथा सुखोदय कियाएँ हैं ।
इस प्रकार इन्द्रोपपाद, इन्द्राभिषेक, विधिदान और सुखोदय ये इन्द्र सम्बन्धी चार क्रियाएं कहीं। अब इन्द्रत्याग नामकी पृथक् क्रियाका निरूपण करता हूँ ॥२०२॥ इन्द्र जब अपनी आयुकी स्थिति थोड़ी रहनेपर अपना स्वर्गसे च्युत होना जान लेता है तब वह देवोंको इस प्रकार उपदेश देता है ॥२०३॥ कि भो देवो, मैंने चिरकालसे आपका पालन किया है, कितने ही देवोंको मैंने पिताके समान माना है, कितने ही देवोको पुत्रके समान बड़े प्रेमसे खिलाया है, कितने ही को पुरोहित, मन्त्री और अमात्यके स्थानपर नियुक्त किया है, कितने ही को मैंने मित्र और पीठमर्दके समान देखा है। कितने ही देवोंको अपने प्राणोंके समान मानकर उन्हें अपनी रक्षाके लिए नियुक्त किया है, कितने ही को देवोंकी रक्षाके लिए सम्मानयोग्य पद पर देखा है, कितने ही को सेनापतिके स्थानपर नियुक्त किया है, कितने ही को अपने परिवारके लोग समझा है, कितने ही को सामान्य प्रजाजन माना है, कितने हीको सेवक माना है, कितने हीको परिजनके स्थानपर और कितने ही को अन्तःपुरमें रहनेवाले प्रतीहारी आदिके स्थानपर नियुक्त किया है। कितनी ही देवियोंको वल्लभिका बनाया है और कितनी ही देवियोंको महादेवी पदपर नियुक्त किया है, इस प्रकार मैंने आप लोगोंपर असाधारण प्रेम दिखलाया है और आप लोगोंने भी हमपर असाधारण प्रेम धारण किया है ॥२०४-२०९॥ इस समय स्वर्गके भोगोंमें मेरी इच्छा मन्द हो गयी है और निश्चय ही पृथिवी लोककी लक्ष्मी आज मेरे निकट आ रही है ॥२१०॥ इसलिए आज तुम सबकी साक्षीपूर्वक मैं स्वर्गका यह समस्त साम्राज्य छोड़ रहा हूँ और मेरे पीछे मेरे समान जो दूसरा इन्द्र होनेवाला है उसके लिए यह समस्त सामग्री समर्पित करता हूँ ॥२११॥ इस प्रकार उन सब देवोंमें अपनी अनुत्कण्ठा अर्थात् उदासीनताका अनुभव करता हुआ इन्द्र उन सबके लिए शिक्षा दे और धीरवीर बुद्धिका धारक हो, इन्द्र पदका त्याग कर दुःखी न हो ॥२१२॥ इस तरह जो स्वर्गके भोगोंका त्याग करता है वह इन्द्रत्याग किया है। यह भी एक १ विधिदान । २ स्वराट् प०, ल०। ३ पिता इवाचरिताः । ४ कामाचार्य । ५ समानं यथा भवति तथा । ६ लोकपाला इत्यर्थः । ७ सेनापति । ८ ततः कारणात् । ९ उपशिष्य । १० न गच्छति ।