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आदिपुराणम् गर्भाधानात् परं मासे तृतीये संप्रवर्तते । प्रीति म क्रिया प्रीतैर्याऽनुष्ठेया द्विजन्मभिः ॥७॥ तत्रापि पूर्ववन्मन्त्रपूर्वा पूजा जिनेशिनाम् । द्वारि तोरणविन्यासः पूर्णकुम्भौ च संमतौ ॥७८॥ तदादि प्रत्यहं भेरीशब्दो घण्टाध्वनान्वितः । यथाविभवमवतैः प्रयोज्यो गृहमेधिमिः ॥७९॥
इति प्रीतिः । आधानात् पञ्चम मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते । या सुप्रीतः प्रयोक्तव्या परमोपासकव्रतैः ॥८॥ तत्राप्युको विधिः पूर्वः सोऽहंद्विम्बसन्निधौ । कार्यो मन्त्रविधानज्ञैः साक्षीकृत्याग्निदेवताः ॥८१॥
इति सुप्रीतिः। धृतिस्तु सप्तमे मासि कार्या तद्वक्रियादरैः । गृहमंधिभिरव्यग्रमनोभिर्गर्भवृद्धये ॥८२॥
___ इति धृतिः । नवमं मास्यतोऽभ्यणे मांदो नाम क्रियाविधिः । तद्वदेवाहतैः कार्यो गर्भपुष्टय द्विजोत्तमैः ॥८३॥ तष्टो गात्रिकाबन्धी मङ्गल्यं च प्रसाधनम् । रक्षासूत्रविधानं च गर्भिण्या द्विजसत्तमैः ॥४॥
इति मोदः। प्रियोद्भवः प्रसूतायां जातकर्म विधिः स्मृतः । जिनजातकमाध्याय प्रवयो यो यथाविधि ॥४५॥ अवान्तरविशेषोऽत्र क्रियामन्त्रादिलक्षणः । भूयान् समस्त्यसौ ज्ञेयो मूलोपासकसूत्रतः ॥८६॥
इति प्रियोद्भवः। गर्भाधानके बाद तीसरे माहमें प्रीति नामकी क्रिया होती है जिसे सन्तुष्ट हुए द्विज लोग करते हैं ।। ७७ ॥ इस क्रियामें भी पहलेकी क्रियाके समान मन्त्रपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनी चाहिए, दरवाजेपर तोरण बाँधना चाहिए तथा दो पूर्ण कलश स्थापना करना चाहिए ॥ ७८ ॥ उस दिनसे लेकर गृहस्थोंको प्रतिदिन अपने वैभवके अनुसार घण्टा और नगाड़े बजवाने चाहिए ।। ७२ ।। यह दूसरी प्रीति क्रिया है।
गर्भाधानसे पाँचवें माहमें सुप्रीति क्रिया की जाती है जो कि प्रसन्न हुए उत्तम श्रावकोंके द्वारा की जाती है ।। ८० ॥ इस क्रियामें भी मन्त्र और क्रियाओंको जाननेवाले श्रावकोंको अग्नि तथा देवताकी साक्षी कर अर्हन्त भगवान्की प्रतिमाके समीप पहले कही हुई समस्त विधि करनी चाहिए ॥ ८१ ।। यह तीसरी सुप्रीति नामकी क्रिया है।
___जिनका आदर किया गया है और जिनका चित्त व्याकुल नहीं है ऐसे गृहस्थोंको गर्भकी वृद्धिके लिए गर्भसे सातवें महीनेमें पिछली क्रियाओंके समान ही धृति नामकी क्रिया करनी चाहिए ॥८२।। यह चौथी धृति नामकी क्रिया है।
तदनन्तर नौवें महीनेके निकट रहनेपर मोद नामकी क्रिया की जाती है यह क्रिया भी पिछली क्रियाओंके समान आदरयुक्त उत्तम द्विजोंके द्वारा गर्भकी पुष्टिके लिए की जाती है ॥८३॥ इस क्रियामें उत्तम द्विजोंको गभिणीके शरीरपर गात्रिकाबन्ध करना चाहिए अर्थात् मन्त्रपूर्वक बीजाक्षर लिखना चाहिए, मंगलमय आभूषणादि पहनाना चाहिए और रक्षाके लिए कंकणसूत्र आदि बाँधनेकी विधि करनी चाहिए ॥८४॥ यह पाँचवीं मोदक्रिया है। ___तदनन्तर प्रसूति होनेपर प्रियोद्भव नामकी क्रिया की जाती है, इसका दूसरा नाम जातकर्म विधि भी है। यह क्रिया जिनेन्द्र भगवान्का स्मरण कर विधिपूर्वक करनी चाहिए ॥८५॥ इस क्रियामें क्रिया मन्त्र आदि अवान्तर विशेष कार्य बहुत भारी हैं इसलिए इसका पूर्ण ज्ञान मूलभूत उपासकाध्ययनाङ्गसे प्राप्त करना चाहिए ॥८६॥ यह छठवीं प्रियोद्भव क्रिया है। १ स्वनान्वितः ल० । २ गात्रेषु बीजाक्षराणां मन्त्रपूर्वक न्यासः । ३ शोभनम् । ४ अलङ्कारः । ५ रक्षार्थ कङ्कणमूत्रबन्धनविधानम् । ६ प्रसूतायां सत्याम् । ७ महान् ।