________________
१७१
चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व
शार्दूलविक्रीडितम् नत्वा विश्वसृजं चराचरगुरुं देवं 'दिवीशाचितं
नान्यस्य प्रणतिं व्रजाम इति ये दीक्षां परां संश्रिताः । तं नः सन्तु तपोविभूतिमुचिता स्वीकृत्य मुनिश्रियां
बद्धेच्छावृषभात्मजा जिन जुषाम ग्रेसराः श्रेयसे ॥२२२॥ स श्रीमान् भरतेश्वरः प्रणिधिभिर्यान्ग्रहतां नानयत्
संभोक्तुं निखिला विभज्य वसुधां साई च यै!ऽशकत् । निर्वाणाय पितृषभं जिनवृषं ये शिश्रियुः श्रेयसे
ते नो मानधना हरन्तु दुरितं निर्दग्धकर्मेन्धनाः ॥२२३॥ इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
भरतराजानुजदीक्षावर्णनं नाम चतुस्त्रिंशत्तमं पर्व ॥३४॥
समस्त लोकका हित करनेवाले थे ऐसे वे भगवान् वृषभदेवके पुत्र तुम सबका कल्याण करें ॥२२०-२२१।। त्रस और स्थावर जीवोंके गुरु तथा इन्द्रोंके द्वारा पूज्य भगवान् वृषभदेवको नमस्कार कर अब हम किसी दूसरेको प्रणाम नहीं करेंगे ऐसा विचार कर जिन्होंने उत्कृष्ट दीक्षा धारण की थी. जिन्होंने योग्य तपश्चरणरूपी विभतिको स्वीकार कर मोक्षरूपी लक्ष्मीके प्रति अपनी इच्छा प्रकट की थी और जिनेन्द्र भगवान्की सेवा करनेवालोंमें सबसे मुख्य हैं ऐसे भगवान् वृषभदेवके पुत्र हम सबके कल्याणके लिए हों ।।२२२॥ वह प्रसिद्ध श्रीमान् भरत अपने दूतोंके द्वारा जिन्हें नम्रता प्राप्त नहीं करा सका और न विभाग कर जिनके साथ समस्त पृथिवीका उपभोग ही कर सका तथा जिन्होंने निर्वाणके लिए अपने पिता श्री जिनेन्द्रदेवका आश्रय लिया ऐसे अभिमानरूपी धनको धारण करनेवाले और कर्मरूपी ईंधनको जलानेवाले वे मुनिराज हम सब लोगोंके पापोंका नाश करें ॥२२३॥
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहके भाषानुवादमें भरतराजके छोटे भाइयोंकी दीक्षाका वर्णन
करनेवाला चौंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१ इन्द्र । २ जिनं जुषन्ते सेवन्त इति जिनजुषः तषाम् । ३ चरैः । 'प्रणिधिः प्रार्थने चरे' इत्यभिधानात् । ४ समर्थो नाभूत् । ५ आश्रयन्ति स्म ।