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आदिपुराणम्
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तपोमयः प्रणीतोऽग्निः कर्माण्याहुतयोऽभवन् । विधिगास्ते सुयज्वानो मन्त्रः स्वायंभुवं वचः ॥ २३५॥ महाध्वर पतिर्देवो वृषभो दक्षिणा दया । फलं कामितसं सिद्धिरपवर्गः क्रियावधिः ॥ २१६ ॥ 'इतीमामार्ष भी मिष्टि मभिसंधाय तेऽञ्जसा । प्रावीवृत न्नन्चाना स्तपोयज्ञमनुत्तरम् ॥२१७॥ इत्यमनगराणां पतं संगीय भावनाम् । ते तथा निर्वहन्ति स्म निसर्गोऽयं महीयसाम् ॥२१८॥ किमत्र बहुना धर्मक्रिया यावव्यविप्लुता । तां कृत्स्नां ते स्वसाच्चक्रुस्त्यक्तराजन्य विक्रियाः ॥२१९॥
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वसन्ततिलकावृत्तम्
इत्थं पुराणपुरुषादधिगम्य बोधि
ये राज्यभूमिमवधूय विधूतमोहाः
पारवा" मुनिवराः पुरुधैर्यसारा
योगीश्वरानुगतमार्गमनुप्रपन्नाः
तत्तीर्थमानससरः प्रियराजहंसाः ।
אי
प्रावाजिपुर्भरतराजमनन्तुकामाः ॥२२०॥
धीरानगारचरितेषु" कृतावधानाः ।
नो दिशन्त्वखिललोकहितैकतानाः ॥२२१॥
जिसमें तपश्चरण ही संस्कारकी हुई अग्नि थी, कर्म ही आहुति अर्थात् होम करने योग्य द्रव्य थे, विधिविधानको जाननेवाले वे मुनि ही होम करनेवाले थे । श्री जिनेन्द्रदेव के वचन ही मन्त्र थे, भगवान् वृषभदेव ही यज्ञके स्वामी थे, दया ही दक्षिणा थी, इच्छित वस्तुकी प्राप्ति होना ही फल था और मोक्षप्राप्त होना ही कार्यकी अन्तिम अवधि थी । इस प्रकार भगवान् ऋषभदेवके द्वारा कहे हुए यज्ञका संकल्प कर उन तपस्वियोंने तपरूपी श्रेष्ठ यज्ञकी प्रवृत्ति चलायी थी ॥ २१५ - २१७॥ इस तरह वे मुनि, मुनियोंकी उत्कृष्ट भावनाकी प्रतिज्ञा कर उसका अच्छी तरह निर्वाह करते थे सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंका यह स्वभाव ही है || २१८ ॥ इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है उन सब मुनियोंने राज्यअवस्थामें होनेवाले समस्त विकार भावोंको छोड़कर अनादि कालसे जितनी भी वास्तविक क्रियाएं चली आती थीं उन सबको अपने अधीन कर लिया था ॥ २१९ ॥
इस प्रकार पुराणपुरुष भगवान् आदिनाथसे रत्नत्रयकी प्राप्ति कर जो उनके तीर्थरूपी मानससरोवर के प्रिय राजहंस हुए थे, जिन्होंने राज्यभूमिका परित्याग कर सब प्रकार - का मोह छोड़ दिया था, जो भरतराजको नमस्कार नहीं करनेकी इच्छासे ही दीक्षित हुए थे, उत्कृष्ट धैर्य ही जिनका बल था, जो धीर-वीर मुनियोंके आचरण करनेमें सदा सावधान रहते थे, जो योगिराज भगवान् वृषभदेवके द्वारा अंगीकार किये हुए मार्गका पालन करते थे और जो
१ संस्कृताग्निः प्रणीतः संस्कृतानलः' इत्यभिधानात् । २ तपोधनाः । ३ महायज्ञ । ४ होमान्ते याचकादीनां देयद्रव्यम् । ५ क्रियावसानः । ६ ऋषभसंबन्धिनीम् । ७ यजनम् । ८ चक्रुः । ९ प्रवचने साङगे अधीतिनः । 'अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधोती' इत्यभिधानात् । १० प्रतिज्ञां कृत्वा । ११ संवहन्ति स्म स०, ल० । १२ त्यक्तराजसमूहविकाराः । १३ त्यक्त्वेत्यर्थः । १४ नमस्कारं न कर्तुकामाः । १५ पुरोः संबन्धिनः । १६ यत्याचारेपू । १७ अक्षीकृत्य । १८ सुखम् । १९ वो प०, स०, ल० । नः अस्माकम् । २० जनहितेऽनन्यवृत्तयः ।