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सप्तत्रिंशत्तम पर्व
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तस्यासि पुत्रिका दीप्रा रत्नानद्धस्फुरत्सरुः । लोहवाहिन्यभून्नाम्ना जयश्रीदर्पणायिता ॥१६५॥ कपोऽस्य मनोवेगो जयश्रीप्रणयावहः । द्विषत्कुलकुलक्ष्मा ध्रदलने योऽशनायितः ॥१६६॥ सौनन्दकाख्यमस्याभूदसिरनं स्फुरद्युति । यस्मिन् करतलारूढे दोलारूढमिवाखिलम् ॥१६७॥ 'प्राभूतमुख खे विभोर्भूतमुखाङ्कितम् । स्फुरताऽऽजीमुखे येन द्विषां मृत्युमुखायितम् ॥१६८॥ चक्ररत्नम भूजिष्णो देवचक्राक्रमणक्षमम् । नाम्ना सुदर्शनं दीनं यदुर्दर्शमरातिभिः ॥१६६॥ प्रचण्डचण्डवेगाख्यो दण्डोऽभूच्चक्रिणः पृथुः । स यस्य विनियोगोऽभूद् बिलकण्टकशोधने ॥१७॥ नाम्ना वमयं दिव्यं चर्मरत्नमभूद् विभोः । तद्बलं यद्बलाधानान्निस्तीर्ण जलविप्लवात् ॥१७१॥ मणिचूडामणिनाम चिन्तारत्नमनुत्तरम् । जगचुडामणेरस्य चित्तं येनानुरञ्जितम् ॥१७२॥ सा चिन्ताजननीत्यस्य काकिणी भास्वराऽभवत् । या रूप्यादिगुहाध्वान्तविनिर्भेदकदीपिका ॥१७३।। चमूपतिरयोध्याख्यो नृरत्नमभवत् प्रभोः । समरेऽरिजयाद्यस्य रोदसी व्यानशे यशः ॥१७४॥ बुद्धिसागरनामास्य पुरोधाः पुरुधीरभूत् । धा क्रिया यदायत्ता प्रतीकारीऽपि दैविके ॥१७५॥ सुधीहपतिर्नाम्ना कामवृष्टिरभीष्टदः । व्ययोप व्ययचिन्तायां नियुक्तो यो निधीशिनः ॥१७६॥
हो रहा था और जो सिंहके नाखूनोंके साथ स्पर्धा करता था ऐसा उनका सिंहाटक नामका भाला था ॥१६४॥ जो अत्यन्त देदीप्यमान थी, जिसकी रत्नोंसे जड़ी हुई मूठ बहुत ही चमक रही थी, और जो विजयलक्ष्मीके दर्पणके समान जान पड़ती थी ऐसी लोहवाहिनी नामकी उनकी छुरी थी ॥१६५।। मनोवेग नामका एक कणप (अस्त्रविशेष) था जो कि विजयलक्ष्मीपर प्रेम करनेवाला था और शत्रुओंके वंशरूपी कुलाचलोंको खण्डित करनेके लिए वज्रके समान था ॥१६६।। भरतके सौनन्दक नामकी श्रेष्ठ तलवार थी जिसकी कान्ति अत्यन्त देदीप्यमान हो रही थी और जिसे हाथमें लेते ही यह समस्त जगत् झूलामें बैठे हुएके समान काँप उठता था ॥१६७॥ उनके भूतोंके मुखोंसे चिह्नित भूतमुख नामका खेट ( अस्त्रविशेष ) था, जो कि युद्धके प्रारम्भमें चमकता हुआ शत्रुओंके लिए मृत्युके मुखके समान जान पड़ता था ॥१६८॥ उन विजयी चक्रवर्तीके सुदर्शन नामका चक्र था, जो कि समस्त दिशाओंपर आक्रमण करने में समर्थ था, देदीप्यमान था और जो शत्रुओंके द्वारा देखा भी नहीं जा सकता था ।।१६९।। जिसका नियोग गुफाके काँटे वगैरह शोधनेमें था ऐसा चण्डवेग नामका बहुत भारी प्रचण्ड (भयंकर ) दण्ड उस चक्रवर्तीके था ॥१७०॥ भरतेश्वर महाराजके वज्रमय चर्मरत्न था, वह चर्मरत्न, कि जिसके बलसे उनकी सेना जलके उपद्रवसे पार हुई थी - बची थी ॥१७१।। उनके चडामणि नामका वह उत्तम चिन्तामणि रत्न था जिसने कि जगत्के चड़ामणि-स्वरूप महाराज भरतका चित्त अनुरक्त कर लिया था ॥१७२।। चिन्ताजननी नामकी वह काकिणी थी जो कि अत्यन्त देदीप्यमान हो रही थी और जो विजया पर्वतकी गुफाओंका अन्धकार दूर करने के लिए मुख्य दीपिकाके समान थी ।।१७३।। उन प्रभुके अयोध्य नामका सेनापति था जो कि मनुष्योंमें रत्न था और युद्ध में शत्रुओंको जीतनेसे जिसका यश आकाश और पृथिवीके बीच व्याप्त हो गया था ॥१७४|| समस्त धार्मिक क्रियाएँ जिसके अधीन थीं और दैविक उपद्रव होनेपर उनका प्रतिकार करना भी जिसके आश्रित था ऐसा बुद्धिसागर नामका महाबुद्धिमान् पुरोहित था ॥१७५॥ उनके कामवृष्टि नामका गृहपति रत्न था, जो कि अत्यन्त बुद्धिमान् था, इच्छानुसार सामग्री देनेवाला था तथा जो चक्रवर्तीके छोटे-बड़े सभी खर्चांकी
१ क्षुरिका । 'स्याच्छस्त्री चासिपुत्री च क्षुरिका चासिधेनुका।' इत्यभिधानात् । २ मुष्टिः । 'त्सरुः खड्गादिमुष्टिः स्याद्' इत्यभिधानात् । ३ कणवोऽस्य ल० । ४ पर्वत । ५ निस्तरणमकरोत् । ६ आय । ७ चक्रिणः ।