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आदिपुराणम्
वसुधारकमिन्यासीत् कोष्टागारं महाव्य यम् । जीमूतनामधेयं च मजनागारमूर्जितम् ॥१५२॥ रत्नमालाऽतिरोचिष्णुर्बभूवास्यावतंसिका । देवरम्यति रम्या सा मता दृष्यकुटी' पृथः ॥१५३॥ सिंहवाहिन्यभूच्छय्या सिंहैरू हा भयानकैः । सिंहासनमोऽस्योच्चैर्गुणैर्नाम्नाऽप्यनुत्तरम् ॥१५॥ चामराण्युपमामानं व्यतीन्यानुपमान्यमान् । विजयाईकुमारेण वितीर्णानि निधीशिने ॥१५५॥ भास्वतसूर्यप्रभं तस्य बभूवातपवारणम् । परायरत्ननिर्माणं जितसूर्यशतप्रभम् ॥१५६॥ नाना विद्युत्प्रभ चास्य रुचिरे मणिकुण्डले । जित्वा ये वैद्युतीं दीप्तिं रुरुचाते स्फुरत्त्विषी ॥१५७॥ रत्रांशुजटिलास्तस्य पादुका विषमोचिकाः । परेषां पदसंस्पर्शाद मुञ्चन्त्यो विषमुल्वणम् ॥१५॥ अभेद्याश्यमभूत्तस्य तनुत्राणं प्रभास्वरम् । द्विषतां शरनाराचैर्यदभेद्यं महाहवे ॥१५९॥ रथोऽजितञ्जयो नाम्ना जयलक्ष्मीभरोद्वहः । यत्र शस्त्राणि जैत्राणि दिव्यान्यासन्ननेकशः ॥१६॥ चण्याकाण्डाशनिप्रख्यज्याघाताऽकम्पिताखिलम् । जितदत्यामरं तस्य वज्रकाण्डमभूद्धनुः ॥१६१॥ अमोघपातास्तस्यासन नामोघाख्या महषवः । यैरसाध्यजये चक्री कृतश्लाघो रणाङ्गणे ॥१६२॥ प्रचण्डा वज्रतुण्डारख्या शकिरस्यारिखण्डिनी । बभूव वज्र निर्माणाश्लाघ्या वज्रिजयेऽपि या ॥१६३॥ कुन्तः सिंहाको नाम यः सिंहनखरांकुरैः । स्पर्धते स्म निशाताग्रो मणिदण्डायमण्डनः ॥१६॥
खास महल था और कुबेरकान्त नामका भाण्डारगृह था जो कभी खाली नहीं होता था॥१५१॥ वसुधारक नामका बड़ा भारी अटूट कोठार था और जीमूत नामका बड़ा भारी स्नानगृह था ॥१५२।। उस चक्रवर्तीके अवतंसिका नामकी अत्यन्त देदीप्यमान रत्नोंकी माला थी और देवरम्या नामकी बहुत बड़ी सुन्दर चाँदनी थी ॥१५३॥ भयंकर सिंहोंके द्वारा धारण की हुई सिंहवाहिनी नामकी शय्या थी और गुण तथा नाम दोनोंसे अनुत्तर अर्थात् उत्कृष्ट बहुत ऊँचा सिंहासन था ॥१५४।। जो विजयार्धकुमारके द्वारा निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीके लिए समर्पित किये गये थे ऐसे अनुपमान नामके उनके चमर उपमाको उल्लंघन कर अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥१५५॥ उस चक्रवर्तीके बहुमूल्य रत्नोंसे बना हुआ और सैकड़ों सूर्यको प्रभाको जीतनेवाला सूर्यप्रभ नामका अतिशय देदीप्यमान छत्र था ॥१५६॥ उनके देदीप्यमान कान्तिके धारक विद्युत्प्रभ नामके दो ऐसे सुन्दर कुण्डल थे जो कि बिजलीकी दीप्तिको पराजित कर सुशोभित हो रहे थे ।।१५७॥ महाराज भरतके रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त हुई विषमोचिका नामकी ऐसी खड़ाऊँ थीं जो कि दूसरेके पैरका स्पर्श होते ही भयंकर विष छोड़ने लगती थीं। ॥१५८॥ उनके अभेद्य नामका कवच था जो कि अत्यन्त देदीप्यमान था और महायुद्ध में शत्रुओंके तीक्ष्ण बाणोंसे भी भेदन नहीं किया जा सकता था ॥१५९|| विजयलक्ष्मीके भारको धारण करनेवाला अजितंजय नामका रथ था जिसपर शत्रओंको जीतनेवाले अनेक दिव्य शस्त्र रखे रहते थे ॥१६०॥ असमय में होनेवाले प्रचण्ड वज्रपातके समान जिसकी प्रत्यंचाके आघातसे समस्त संसारका कँप जाता था और जिसने देव, दानव -सभीको जीत लिया था ऐसा वनकाण्ड नामका धनुष उस चक्रवर्तीके पास था ।।१६।। जो कभी व्यर्थ नहीं पड़ते ऐसे उसके अमोघ नामके बड़े-बड़े बाण थे। इन बाणोंके द्वारा ही चक्रवर्ती जिसमें विजय पाना असाध्य हो ऐसे युद्धस्थलमें प्रशंसा प्राप्त करता था ॥१६२॥ राजा भरतके शत्रुओंको खण्डित करनेवाली वज्रतुण्डा नामकी शक्ति थी, जो कि वज्रकी बनी हुई थी और इन्द्रको भी जीतनेमें प्रशंसनीय थी ॥१६३॥ जिसकी नोक बहुत तेज थी, जो मणियोंके बने हुए डण्डेके अग्रभागपर सुशोभित
१ पटकुटी। २ उपमाप्रमाणम् । ३ भान्ति स्म । ४ कुण्डले। ५ विद्यतमंबन्धिनीम् । ६. विषमोचिकासंज्ञाः । ७ महाशरैः। - मणिमयदण्डाग्रं मण्डनम् अलंकारो यस्य ।