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आदिपुराणम् अदीनमनसः शान्ताः परमोपेक्षयान्विताः । 'मुक्तिशाठ्यास्विमिर्गुप्ताः कामभोगेष्वविस्मिताः ॥१९५॥ जिनाज्ञानुगताः शश्वत्संसारोद्विग्नमानसाः । गर्भवास जरामृत्युपरिवर्तनभीरवः ॥१६॥ भ्रतज्ञानदृशो दृष्टपरमार्था विचक्षणाः । ज्ञानदीपिकया साक्षाच्चस्ते पदमक्षरम् ॥१७॥ ते चिरं भावयन्ति स्म सन्मार्ग मुक्तिसाधनम् । परदत्तविशुद्धान्नभोजिनः पाण्यमत्रकाः ॥१८॥ शङ्किताभिहृतो द्दिष्ट क्रयक्रीतादि लक्षणम् । सूत्रे 'निषिद्धमाहारं नैच्छन्प्राणात्ययेऽपि ते ॥११॥ भिक्षा नियतवेलायां गृहपङ्क्त्यनतिक्रमात् । शुद्धामाददिरे धीरा मनिवृत्तौ समाहिताः ॥२०॥ शीतमुणं विरूक्षं च स्निग्धं सलवणं न वा । तनुस्थित्यर्थमाहारमाजहस्ते गतस्पृहाः ॥२०१॥ अक्षम्रक्षणमा त प्राणभृत्य' विषवणुः । धर्मार्थमेव च प्राणान् धारयन्ति स्म केवलम् ॥२०२॥
न तुष्यन्ति स्म ते लब्धौ व्यषीदनायलब्धितः । मन्यमानास्तपोलाममधिकं धुतकल्मषाः ॥२०३॥ काय, पृथिवीकाय, जलकाय, वायुकाय और अग्निकाय इन छह कायके जीवोंकी बड़े यत्नसे रक्षा करते थे ॥१९४॥ उन मुनियोंका हृदय दीनतासे रहित था, वे अत्यन्त शान्त थे, परम उपेक्षासे सहित थे, मोक्ष प्राप्त करना ही उनका उद्देश्य था, तीन गुप्तियोंके धारक थे और काम भोगोंमें कभी आश्चर्य नहीं करते थे ॥१९५।। वे सदा जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाके अनुसार चला करते थे, उनका हृदय संसारसे उदासीन रहा करता था और वे गर्भमें निवास करना, बुढ़ापा और मृत्यु इन तीनोंके परिवर्तनसे सदा भयभीत रहते थे ॥१९६॥ श्रुतज्ञान ही जिनके नेत्र हैं और जो परमार्थको अच्छी तरह जानते हैं ऐसे वे चतर मनिराज ज्ञानरूपी दीपिका के द्वारा अविनाशी परमात्मपदका साक्षात्कार करते थे ॥१९७।। जो दूसरेके द्वारा दिये हुए विशुद्ध अन्नका भोजन करते हैं तथा हाथ ही जिनके पात्र हैं ऐसे वे मुनिराज मोक्षके कारणस्वरूप समीचीन मार्गका निरन्तर चिन्तवन करते रहते थे ।।१९८॥ शंकित अर्थात् जिसमें ऐसी शंका हो जावे कि यह शुद्ध है अथवा अशुद्ध, अभिहृत अर्थात् जो किसी दूसरेके यहाँसे लाया गया हो, उद्दिष्ट अर्थात् जो खासकर अपने लिए तैयार किया गया हो, और क्रयक्रीत अर्थात् जो कीमत देकर बाजारसे खरीदा गया हो इत्यादि आहार जैन शास्त्रोंमें मुनियोंके लिए निषिद्ध बताया है। वे मुनिराज प्राण जानेपर भी ऐसा निषिद्ध आहार लेनेकी इच्छा नहीं करते थे ॥१९९।। मुनियोंकी वृत्तिमें सदा सावधान रहनेवाले वे धीर-वीर मुनि घरोंकी पंक्तियोंका उल्लंघन न करते हुए निश्चित समयमें शुद्ध भिक्षा ग्रहण करते थे ॥२००॥ जिनकी लालसा नष्ट हो चुकी है ऐसे वे मुनिराज शरीरकी स्थितिके लिए ठण्डा, गरम, रूखा, चिकना, नमकसहित अथवा बिना नमकका जैसा कुछ प्राप्त होता था वैसा ही आहार ग्रहण करते थे ॥२०१।। वे मुनि प्राण धारण करनेके लिए अक्षम्रक्षण मात्र ही आहार लेते थे और केवल धर्मसाधन करनेके लिए ही प्राण धारण करते थे। भावार्थ - जिस प्रकार गाड़ी ओंगनेके लिए थोड़ीसी चिकनाईकी आवश्यकता होती है भले ही वह चिकनाई किसी भी पदार्थकी हो इसी प्रकार शरीररूपी गाड़ीको ठीक-ठीक चलानेके लिए कुछ आहारकी आवश्यकता होती है भले ही वह सरस या नीरस कैसा ही हो । अल्प आहार लेकर मुनिराज शरीरको स्थिर रखते हैं और उससे संयम धारण कर मोक्षको प्राप्ति करते हैं वे मुनिराज भी ऐसा ही करते थे ॥२०२।। वे पापरहित मुनिराज, आहार मिल जानेपर सन्तुष्ट नहीं होते थे और नहीं मिलनेपर तपश्चरण १ मुक्तसाध्या अ०, प०, इ०, स० । मुक्तिसाध्या ल०। २ जन्म । ३ पाणिपालकाः द०, ल०, स०, इ० । पाणिपुटभाजनाः । ४ स्थूलतण्डुलाशनादिकं दत्त्वा स्वीकृत कलमौदनादिक । ५ आत्मानमुद्दिश्य । ६ पणादिक दत्वा स्वीकृतम् । ७परमागमे। ८ निषेधितम् । ९ यत्याचारे। १० आददुः । ११ प्राणधारणार्थम् । १२ भुञ्जते स्म । ९३ धर्म-निमित्तम् । १४ लाभे सति ।