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आदिपुराणम्
जयति तरुरशोको दुन्दुभिः पुष्पवर्ष
चमरिरुहसमेतं विष्टरं सहमुद्धम् । वचनमसममुच्चैरातपत्रं च तेजः
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त्रिभुवनजयचिह्नं यस्य सार्वो जिनोऽसौ ॥ २४४ ॥
जयति जननतापच्छेदि यस्य क्रमाब्जं
विपुलफलदमारान्न नाकीन्द्रभृङ्गम् । समुपनतजनानां प्रीणनं कल्पवृक्ष
स्थितिमतनुमहिम्ना सोडवतातीर्थंकृद्वः ॥२४५॥ नृवर भरतराज्योऽप्यूर्जितस्यास्य युष्मद्
भुजपरिघयुगस्य प्राप्नुयान्नैव कक्षाम् । भुजबलमिदमास्तां दृष्टिमात्रेऽपि कस्ते
रणनिषकगतस्य स्थातुमीशः क्षितीशः ॥ २४६॥
"तदलमधिप कालक्षेपयोगेन निद्रां
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७ ागरूक स्त्वमिं
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सपदि च जयलक्ष्मी प्राप्य भूयोऽपि देवं
जिनमवनम भक्त्या शासितारं जयाय ॥ २४७॥ हरिणीच्छन्दः
इति समुचितैरुच्चैरुच्चाव'चैर्जयमङ्गलैः
सुघटितपदैर्भूयोऽमीभिर्जयाय विबोधितः । शयनममुचनिद्रापायात् स पार्थिवकुञ्जरः
सुरगज इवोत्संगं गङ्गाप्रतीरभुवः शनैः ॥ २४८ ॥
के लिए समर्थ नहीं हो सका तथा जिनके सामने, देवोंको जीतनेसे जिसका अहंकार बढ़ गया है। ऐसा कामदेव भी शस्त्र और सामर्थ्यके कुण्ठित हो जानेसे हृदयमें अहंकार धारण नहीं कर सका ऐसे अचिन्त्य प्रभावके धारक वे प्रसिद्ध जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त रहें ।। २४३ || अशोक वृक्ष, दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, चमर, उत्तम सिंहासन, अनुपम वचन, ऊंचा छत्र और भामण्डल ये आठ प्रातिहार्य जिनके तीनों लोकोंको जीतनेके चिह्न वे सबका हित करनेवाले श्री वृषभजिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें || २४४ || जिनके चरणकमल जन्मरूप सन्तापको नष्ट करनेवाले हैं, स्वर्ग मोक्ष आदि बड़े-बड़े फल देनेवाले हैं, दूरसे नमस्कार करते हुए इन्द्र जिनके भ्रमर हैं। और जो शरणमें आये हुए लोगोंको कल्पवृक्षके समान सन्तुष्ट करनेवाले हैं ऐसे वे तीर्थंकर भगवान् सदा विजयी हों और अपने विशाल माहात्म्यसे तुम सबकी रक्षा करें ॥ २४५ ॥ हे पुरुषोत्तम, महाराज भरत भी आपके दोनों भुजारूपी अर्गलदण्डोंकी तुलना नहीं प्राप्त कर सकते हैं, अथवा भुजाओंका बल तो दूर रहे, जब आप युद्धके निकट जा पहुँचते हैं तब आपके देखने मात्र से ही ऐसा कौन राजा है जो आपके सामने खड़ा रहनेके लिए समर्थ हो सके ।। २४६॥ इसलिए हे अधीश्वर, समय व्यतीत करना व्यर्थ है, निद्रा छोड़िए, इस महान् कार्य में सदा जागरूक रहिए और शीघ्र ही विजयलक्ष्मीको पाकर अन्य सब जगह विजय प्राप्त करनेके लिए सबपर शासन करनेवाले देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवको भक्तिपूर्वक फिरसे नमस्कार कीजिए || २४७ || इस प्रकार जिनमें अच्छे-अच्छे पदोंकी योजना की गयी है ऐसे अनेक प्रकारके १ प्रशस्तम् । २ प्रभामण्डलम् । ३ सर्वहितः । ४ समानताम् । ५ तत् कारणात् । ६ जागरणशीलः ।
७ भव । ८ नमस्कुरु । ९ नानाप्रकारैः ।