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षट्त्रिंशत्तमं पर्व कषायतस्करेनास्य हृतं रत्नत्रयं धनम् । सततं जागरूकस्य भूयो भूयोऽप्रमाद्यतः ॥१३॥ वाचंयमस्य' तस्वासीन्न जातु विकथादरः । नामिद्यतेन्द्रियैरस्य मनोदुर्ग सुसंवृतम् ॥१४॥ मनोऽगारे भहत्यस्य बोधिता ज्ञानदीपिका । व्यदीपि तत एवासन् विश्वेऽर्था ध्येयतापदे ॥१४१॥ मतिश्रुताभ्यां निःशेषमर्थतत्त्वं विचिन्वतः । करामलकवद् विश्वं तस्य विस्पष्टतामगात् ॥१४२॥ परीषहजयैदीप्तो विजितेन्द्रियशात्रवः । कषायशत्रूनुच्छेद्य स तपो राज्यमन्वभूत् ॥१४३॥ योगजाश्च यस्तस्य प्रादुरासंस्तपोबलात् । यतोऽस्याविरभूच्छक्तिस्त्रैलोक्यक्षोभणं प्रति ॥१४४॥ चतुर्भेदेऽपि बोधेऽस्य समुत्कर्षस्तदोदभूत् । तत्तदावरणीयानां क्षयोपशमजृम्भितः ॥१४५॥ मतिज्ञानसमुत्कर्षात् कोष्टबुद्धयादयोऽभवन् । श्रुतज्ञानेन विश्वाङ्गपूर्ववित्वादिविस्तरः ॥१४६॥ परमावधिमुल्लङ्घय स सर्वावधिमासदत् । मनःपर्ययबोधे च संप्रापद् विपुलां मतिम् ॥१४॥ ज्ञानशुद्धया तपःशुद्धिरस्यासीदतिरेकिणी । ज्ञानं हि तपसो मूलं यद्वन्मूलं महातरोः ॥१८॥
॥१३८॥ कषायरूपी चोरोंके द्वारा उनका रत्नत्रयरूपी धन नहीं चुराया गया था क्योंकि वे सदा जागते रहते थे और बार-बार प्रमादरहित होते रहते थे। भावार्थ - लोकमें भी देखा जाता है कि जो मनुष्य सदा जागता रहता है और कभी प्रमाद नहीं करता उसकी चोरी नहीं होती। भगवान् बाहुबली अपने परिणामोंके शोधमें निरन्तर लवलीन रहते थे और प्रमादको पासमें भी नहीं आने देते थे इसलिए कषायरूपी चोर उनके रत्नत्रयरूपो धनको नहीं चुरा सके थे ॥१३९॥ वे सदा मौन रहते थे इसलिए कभी उनका विकथाओंमें आदर नहीं होता था । और उनका मनरूपी दुर्ग अत्यन्त सुरक्षित था इसलिए वह इन्द्रियोंके द्वारा नहीं तोड़ा जा सका था। भावार्थ - वे कभी विकथाएँ नहीं करते थे और पाँचों इन्द्रियों तथा मनको वशमें रखते थे ॥१४०॥ उनके मनरूपी विशाल घरमें सदा ज्ञानरूपी दीपक प्रकाशमान रहता था इसलिए ही समस्त पदार्थ उनके ध्येयकोटिमें थे अर्थात् ध्यान करने योग्य थे। भावार्थ - पदार्थोंका ध्यान करनेके लिए उनका ज्ञान होना आवश्यक है, मुनिराज बाहुबलीको सब पदार्थोंका ज्ञान था इसलिए सभी पदार्थ उनके ध्यान करने योग्य थे ॥१४१।। वे मति और श्रुत ज्ञानके द्वारा संसारके समस्त पदार्थोंका चिन्तवन करते रहते थे इसलिए उन्हें यह जगत् हाथपर रखे हुए आँवलेके समान अत्यन्त स्पष्ट था ॥१४२॥ जो परिषहोंको जीत लेनेसे देदीप्यमान हो रहे हैं और जिन्होंने इन्द्रियरूपी शत्रुओंको जीत लिया है ऐसे वे बाहुबली कषायरूपी शत्रुओंको छेदकर तपरूपी राज्यका अनुभव कर रहे थे ॥१४३॥ तपश्चरणका बल पाकर उन मुनिराजके योगके निमित्तसे होनेवाली ऐसी अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हुई थीं जिनसे कि उनके तीनों लोकोंमें क्षोभ पैदा करनेकी शक्ति प्रकट हो गयी थी ॥१४४॥ उस समय उनके मतिज्ञानावरण आदि कर्मोके क्षमोपशमसे मतिज्ञान आदि चारों प्रकारके ज्ञानोंमें वृद्धि हो गयी थी॥१४५।। मतिज्ञानको वृद्धि होनेसे उनके कोष्ठबुद्धि आदि ऋद्धियाँ प्रकट हो गयी थीं और श्रुत ज्ञानके बढ़नेसे समस्त अंगों तथा पूर्वोके जानने आदिकी शक्तिका विस्तार हो गया था ॥१४६।। वे अवधिज्ञानमें परमावधिको उल्लंघन कर सर्वावधिको प्राप्त हुए थे तथा मनःपर्यय ज्ञानमें विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानको प्राप्त हुए थे ॥१४७। उन मुनिराजके ज्ञानकी शुद्धि होनेसे तपकी शुद्धि भी बहुत अधिक हो गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार किसी बड़े वृक्षके ठहरनेमें मूल कारण उसकी जड़ है उसी प्रकार तपके ठहरने आदिमें मूल कारण ज्ञान है ॥१४८॥ १ मौनप्रतिनः । २ ज्ञानदीपिकायाः सकाशात् । ३ चिन्तयतः । ४ उदेति स्म । ५ द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्ववेदित्वतन्निरूपणादिविस्तरः । ६ बोधि प०, ल०। ७ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानम् ।