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दुर्गा' सहस्राणि तस्याष्टाविंशतिर्मता । वनधन्वाननिम्नादिविभागैर्या विभागिताः ॥ ७१ ॥ म्लेच्छराजसहस्राणि तस्याष्टदश संख्यया । रत्नानामुद्भवक्षेत्रं यैः समन्तादधिष्टितम् ॥ ७२ ॥ कालाख्यश्च महाकालो नैस्सः पाण्डुकाह्वया । पद्ममाणवपिङ्गाब्ज सर्वरत्नपदादिकाः ॥ ७३ ॥ निधयो नव तस्यासन् प्रतीतैरिति नामभिः । यैरयं गृहवार्तायां निश्विन्तोऽभून्निधीश्वरः ॥७४॥ निधिः पुण्यनिधेरस्य कालाख्यः प्रथमो मतः । यतो लौकिकशब्दादिवार्तानां प्रभवोऽन्वहम् ॥ ७५ ॥ इन्द्रियार्थी मनोज्ञा ये वीणावंशानकादयः । तान् प्रसूते यथाकालं निधिरेष विशेषतः ॥ ७६ ॥ असिमष्यादिषट्कर्मसाधनद्रव्यसंपदः । यतः शश्वत् प्रसूयन्ते महाकालो निधिः स वै ॥७७॥ शय्यासनालयादीनां नैःसर्थ्यात् प्रभवो निधेः । पाण्डुकाद्धान्यसंभूतिः षड्रसोत्पत्तिरप्यतः ॥ ७८ ॥ पांशुकदुकूल दिवस्त्राणां प्रभवो यतः । स पद्माख्यो निधिः पद्मागर्भाविर्भावितोऽद्युतत् ॥ ७९ ॥ दिव्याभरणभेदानामुद्भवः पिङ्गलान्निधेः । माणवानीतिशास्त्राणां शस्त्राणां च समुद्भवः ॥ ८० ॥ शङ्खात् प्रदक्षिणावर्तात् सौवर्णी सृष्टिमुत्सृजन् । सशङ्खनिधिरुत्प्रेङ्ख दुक्मरोचिर्जितार्करुक् ॥ ८१ ॥ सर्वरत्नान्महानीलनीलस्थूलो' पलादयः । प्रादुःसन्ति ' मणिच्छायारचितेन्द्रायुधत्विषः ॥ ८२ ॥ रत्नानि द्वितयाम्यस्य जीवाजीवविभागतः । क्ष्मात्राणैश्वर्य संभोगसाधनानि चतुर्दश ॥ ८३ ॥
बतलायी है || ७० ॥ अट्ठाईस हजार ऐसे सघन वन थे जो कि निर्जल प्रदेश और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ी विभागों में विभक्त थे ॥ ७१ ॥ जिनके चारों ओर रत्नोंके उत्पन्न होनेके क्षेत्र अर्थात् खानें विद्यमान हैं ऐसे अठारह हजार म्लेच्छ राजा थे ||७२ || महाराज भरतके काल, महाकाल, नैस्सर्प्य, पाण्डुक, पद्म, माणव, पिंग, शंख और सर्वरत्न इन प्रसिद्ध नामोंसे युक्त ऐसी नौ निधियाँ थीं कि जिनसे चक्रवर्ती घरकी आजीविकाके विषयमें बिलकुल निश्चिन्त रहते थे ||७३-७४ ॥ पुण्यकी निधिस्वरूप महाराज भरतके पहली काल नामकी निधि थी जिससे प्रत्येक दिन लौकिक शब्द अर्थात् व्याकरण आदिके शास्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥ ७५ ॥ तथा बीणा, बाँसुरी, नगाड़े आदि जो-जो इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषय थे उन्हें भी यह निधि समयानुसार विशेष रीति से उत्पन्न करती रहती थी ॥ ७६ ॥ जिससे असि, मषी आदि छह कर्मों के साधनभूत द्रव्य और संपदाएँ निरन्तर उत्पन्न होती रहती थीं वह महाकाल नामकी दूसरी निधि थी ॥७७॥ शय्या, आसन तथा मकान आदिकी उत्पत्ति नैसर्प्य नामकी निधि से होती थी । पाण्डुकं निधि से धान्यों की उत्पत्ति होती थी । इसके सिवाय छह रसोंकी उत्पत्ति भी इसी निधिसे होती थी || ७८ || जिससे रेशमी सूती आदि सब तरहके वस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती है और जो कमलके भीतरी भागों से उत्पन्न हुए के समान प्रकाशमान है ऐसी पद्म नामकी निधि अत्यन्त देदीप्यमान थी ||७९ || पिंगल नामकी निधिसे अनेक प्रकारके दिव्य आभरण उत्पन्न होते रहते थे और माणव नामकी निधिसे नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकारके शस्त्रोंकी उत्पत्ति होती रहती थी ॥८०॥ जो अपने प्रदक्षिणावर्त नामके शंखसे सुवर्णकी सृष्टि उत्पन्न करती थी औरं जिसने उछलती हुई सुवर्ण-जैसी कान्तिसे सूर्यकी किरणोंको जीत लिया है ऐसी शंख नामकी निधि थी || ८१ ॥ जिसके मणियोंकी कान्तिसे इन्द्रधनुषकी शोभा प्रकट हो रही है ऐसी. सर्वरत्न नामकी निधि से महानील, नील तथा पद्मरांग आदि अनेक तरहके रत्न प्रकट होते थे ॥८२॥ इनके सिवाय भरत महाराजके जीव और अजीवके भेदसे दो विभागोंमें बँटे हुए चौदह रत्न भी थे जो कि पृथिवीकी रक्षा और ऐश्वर्यके / उपभोग करनेके साधन थे ॥८३॥
१ मरुभूमि । 'समानो मरुधन्वानी' इत्यभिधानात् । २ धन्वन्निम्नानिम्नाद्रि - द० । वनधन्वननम्रादि-ल० । ३ कुक्षिवासम् । ४ म्लेच्छराजैः । ५ पिङ्ग पिङ्गल । अब्ज कमल । ६ व्यापारे । ७ कालनिधेः । ८ जनयन् । ९ उच्चलत् । १० पद्मरागः | ११ प्रकटीभवन्ति । १२ पृथ्वीरक्षा |