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सप्तत्रिंशत्तमं
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२३१ साशोककलिकां चूतमञ्जरीं कर्णसंगिनीम् । दधती' चम्पकप्रोतेः केशान्तैः साऽरुचन्मधौ ॥ १३८ ॥ मध मधुमदारक्तलोचनामारखलद्गतिम् । बहु मेने प्रियः कान्तां मूर्तामिव मदृश्रियम् ॥ ११९ ॥ कलैरलि कुलक्वाणैः सान्यपुष्टविकूजितैः । मधुरं मधुरम्यष्टोत तुष्टयेवामुं विशाम्पतिम् ॥१२०॥ 'कल कण्टी कलक्काण मूर्छितैरलिझङ्कृतैः । व्यज्यते स्म स्मराकाण्डावस्कन्दो' डिण्डिमायितैः ॥१२१॥ " पुष्यच्चूतवनोद्गन्धितत्फुल्लकमलाकरः । पप्रथे सुरभिर्मासः " सुरभीकृतदिग्मुखः ॥ १२२॥ हृतालिकुलशंकारः संचरन्मलयानिलः । अनङ्गनृपतेरासीद् घोषयन्निव शासनम् ॥ १२३ ॥ संध्यारुणां कलामिन्दोमेंने लोको जगइसः' | करालामिव रक्तातां दंष्टां मदनरक्षसः ॥ १२४॥ उन्मत्तकोकिले काले तस्मिन्नुन्मत्तषट्पदे । नानुन्मत्तो जनः कोऽपि मुक्वानङ्ग "दुो मुनीन् ॥ १२५ ॥ सायमुदगाहनिर्णितै रङ्गैस्तुहिनशीतलैः । ग्रीष्मं मदनतापात सास्याङ्गं निश्वापयत् ॥ १२६॥ चन्दनद्रवसिक्त सुन्दराङ्गलतां प्रियाम् । परिरभ्य " दृई दोभ्यां स लेभे गात्रनिर्वृतिम् ॥ १२७ ॥ मदनज्वरतापात तीव्रग्रीष्मोत्मनिःसहाम् । स तां निर्वापयामास स्वाङ्गस्पर्शसुखाम्बुभिः ॥ १२८ ॥ द्वारा उत्पन्न हुई स्तनोंकी कँपकँपीको क्लेश दूर करनेवाले प्रिय पतिके करतलके स्पर्शसे दूर करती थी ॥११७॥ अशोकवृक्षकी कलीके साथ-साथ कानोंमें लगी हुई आमकी मंजरीको धारण करती हुई वह सुभद्रा वसन्तऋतु में चम्पाके फूलोंसे गुँथी हुई चोटी से बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी ।। ११८ ॥ वसन्तऋतु में मधुके मदसे जिसकी आँखें कुछ-कुछ लाल हो रही हैं और जिसकी गति कुछ-कुछ लड़खड़ा रही है - स्खलित हो रही है ऐसी उस सुभद्राको भरत महाराज मूर्तिमती मदकी शोभाके समान बहुत कुछ मानते थे ॥ ११९ ॥ | वह वसन्तऋतु सन्तुष्ट होकर भ्रमरोंकी सुन्दर झंकार और कोकिलाओंकी कमनीय कूकसे मानो राजा भरतकी सुन्दर स्तुति ही करता था || १२० ॥ कोयलोंके सुन्दर शब्दोंसे मिली हुई भ्रमरोंकी झंकारसे ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवने नगाड़ोंके साथ अकस्मात् आक्रमण ही किया हो छापा ही मारा हो ॥ १२१ ॥ फूले हुए आमके वनोंसे जो अत्यन्त सुगन्धित हो रहा है, जिसमें कमलोंके समूह फूले हुए हैं और जिसने समस्त दिशाएँ सुगन्धित कर दी हैं ऐसा वह वसन्तका चैत्र मास चारों ओर फैल रहा था ।। १२२ ।। भ्रमरसमूहकी झंकारको हरण करनेवाला, चारों ओर फिरता हुआ मलयसमीर ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवरूपी राजाके शासनकी घोषणा ही कर रहा हो ।। १२३ ।। उस समय सन्ध्याकालकी लालीसे कुछ लाल हुई चन्द्रमाकी कलाको लोग ऐसा मानते थे मानो जगत्को निगलनेवाले कामदेवरूपी राक्षसकी रक्त से भीगी हुई भयंकर डाँढ़ ही हो || १२४ || जिसमें कोयल और भ्रमर सभी उन्मत्त हो जाते हैं ऐसे उस वसन्तके समय कामदेवके साथ द्रोह करनेवाले मुनियोंको छोड़कर और कोई ऐसा मनुष्य नहीं था जो उन्मत्त न हुआ हो ।। १२५ ।। सायंकाल के समय जलमें अवगाहन करनेसे जो स्वच्छ किये गये हैं और जो बर्फके समान शीतल हैं ऐसे अपने समस्त अंगों से वह सुभद्रा ग्रीष्मकालमें कामके सन्तापसे सन्तप्त हुए भरतके शरीरको शान्त करती थी ॥ १२६ ॥ जिसकी शरीररूपी सुन्दर लतापर घिसे हुए चन्दनका लेप किया गया है ऐसी अपनी प्रिया सुभद्राको भरत महाराज दोनों हाथोंसे गाढ़ आलिंगन कर अपना शरीर शान्त करते थे ।। १२७ ।। जो कामज्वर के सन्तापसे पीड़ित हो रही है और जिसे ग्रीष्मकालकी तोत्र गरमी बिलकुल ही सहन
१ बध्नन्ती ल० । २ खचितैः । ३ वसन्ते । ४ स्तौति स्म । ५ तोपेणैव । ६ कोकिला । ७ मिश्रितैः । ८ प्रकटीक्रियते स्म । ९ कामकालघाटीः । १० पुष्पीभवत् । पुष्पचूत - ३० अ०, प०, स०, ५०, ल० । ११ वसन्तः । १२ आज्ञाम् । १३ लोकभक्षकस्य । १४ रुधिरलिप्ताम् । १५ कामघातकान् । १६ संध्याकालजलप्रवेशशद्धैः । १७ उष्णं परिहृत्य शैत्यं चकारेत्यर्थः । १८ आलिङ्ग्य । १९ शरीरसुखम् । २० असहमानाम् ।