________________
आदिपुराणम्
१२
अभूत् कान्तिश्वकोराक्ष्या ललाटे लुलितालके । हेमपान्तसंलग्ननीलोत्पलविडम्बिनी ॥१०७॥ तस्या विनीलविस्रस्तकवरीबन्धबन्धुरम् । केशपाशमनङ्गस्य मन्ये पाशं प्रसारितम् ॥ १०८ ॥ इत्यस्या रूपमुद्भूतसौष्ठवं त्रिजगज्जयि । मत्वानङ्गस्तदङ्गेषु संनिधानं व्यधात् ध्रुवम् ॥ १०९ ॥ तपालोकनोच्चक्षुस्तद्गात्रस्पर्शनोत्सुकः । तन्मुखामोदमाजिघ्रन् रसयंश्वासकृन्मुखम् ॥ ११०॥ तद्गय कलनिक्वाणश्रुतिसंसक्त कर्णकः । तद्गात्रविपुलाराम स रेमे सुखनिर्वृतः ॥ १११ ॥ पञ्च वाणाननङ्गस्य वदन्त्येतान कुण्ठितान् । पुष्पेषुसंकथालोके प्रसिद्धचैव गता प्रथाम् ॥ १३२ ॥ धनुर्लतां मनोजस्य प्राहुः पुष्पमयीं जडाः । सुकुमारतरं स्त्रैणं वपुरंवातनोर्धनुः ॥ ११३ ॥ पञ्चवाणाननङ्गस्य नियच्छन्ति कुतो जडाः । यदेव कामिनां हारि तदस्त्रं कामदीपनम् ॥ ११४ ॥ स्मितमालोकितं हासो जलितं मदमन्मनम् । कामाङ्गमिदमेवान्यत् कैतवं तस्य पोषकम् ॥ ११५ ॥ आरूढयौवनोष्माण स्तनावस्या हिमागमे । रोम्णां हृषितमस्याङ्गे शिशिरोत्थं विनिन्यतुः ॥ ११६ ॥ हिमानिलैः कुचोत्कम्पमाहितं सा हृतक्लमैः । प्रेयस्करतलस्परौर पनिन्ये ऽङ्कशायिनी ॥ ११७ ॥ वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कौतूहलसे मुँहका सुगन्ध सुँघनेके लिए प्रयत्न ही कर रही हो ॥ १०५ ॥ उसके दोनों नेत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो कामदेव के सभापति रहते हुए कानोंको साक्षी बनाकर परस्पर में हाव-भावके द्वारा स्पर्धा ही कर रहे हों ॥ १०६ ॥ जिसपर कालीकाली अलकें बिखर रही हैं ऐसे चकोरके समान नेत्रवाली उस सुभद्राके ललाटपर जो कान्ति थी वह सुवर्णके पटियेपर लटकती हुई नीलकमलकी मालाके समान बहुत ही सुन्दर जान पड़ती थी ॥ १०७ ॥ अत्यन्त काले और नीचेकी ओर लटकते हुए कबरीके बन्धन से सुशोभित उसके केशपाश ऐसे अच्छे जान पड़ते थे मानो फैला हुआ कामदेवका पाश ही हो ॥ १०८ ॥ इस प्रकार जिसकी उत्तमता प्रकट है ऐसे उस सुभद्राके रूपको तीनों जगत्का जीतनेवाला जानकर ही मानो कामदेवने उसके प्रत्येक अंगों में अपना निवासस्थान बनाया था ॥ १०९ ॥ | उसका रूप देखने के लिए जो सदा चक्षुओंको ऊपर उठाये रहता है, उसके शरीरका स्पर्श करनेके लिए जो सदा उत्कण्ठित बना रहता है, जो बार-बार उसके मुखकी बार उसके मुखका स्वाद लिया करता है और उसके संगीतके कान सदा तल्लीन रहते हैं ऐसा वह चक्रवर्ती उस सुभद्रा के शरीररूपी बड़े बगीचे में सुख से सन्तुष्ट होकर क्रीड़ा किया करता था ।११०-१११ ।। कविलोग, जिनका कहीं प्रतिबन्ध नहीं होता ऐसा सुभद्राका रूप, कोमल स्पर्श, मुखको सुगन्ध, ओठोंका रस और संगीतमय सुन्दर शब्द इन पाँचको ही कामदेवके पाँच बाण बतलाते हैं । लोकमें जो कामदेव के पाँचों बाणोंकी चर्चा है वह रूढ़ि मात्र से ही प्रसिद्ध हो गयी है ।। ११२ ।। मूर्ख लोग कहते हैं कि कामदेवका धनुष फूलोंका है परन्तु वास्तवमें स्त्रियोंका अत्यन्त कोमल शरीर ही उसका धनुष है ।। ११३ ।। न जाने क्यों मूर्ख लोग कामदेवको पाँच बाण ही प्रदान करते हैं अर्थात् उसके पाँच बाण बतलाते हैं क्योंकि जो कुछ भी कामी लोगोंके चित्तको हरण करनेवाला है वह सभी कामको उत्तेजित करनेवाला कामदेवका बाण है । भावार्थ - कामदेव के अनेक बाण हैं ।। ११४ ।। स्त्रियोंका मन्द हास्य, तिरछी चितवन, जोरसे हँसना और कामके आवेशसे अस्पष्ट बोलना यही सब कामदेव अंग हैं इनके सिवाय जो उनका कपट है वह इन्हीं सबका पोषण करनेवाला है ।। ११५ ।। जो जवानीके कारण गर्म हो रहे हैं ऐसे सुभद्राके दोनों स्तन हेमन्तऋतुमें ठण्डसे उठे हुए भरत के शरीर के रोमांचोंको दूर करते थे ॥ ११६ ॥ । गोदमें शयन करनेवाली सुभद्रा शीतलवायुके
२३०
सुगन्ध सुँघा करता है, बारसुन्दर शब्दों के सुननेमें जिसके
: गलित । २ सुखतृप्तः । ३ तद्रूपादीन् । ४ अमन्दान् । ५ स्त्रिया इदम् । ६ नियमयन्ति । ७ किं कारणम् । ८ मनाव्यक्तभाषिणम् । ९ कामस्य । १० रोमाञ्चम् । 'रोमाञ्चो रोमहर्षणम्' इत्यभिधानात् । ११ नाशं चक्रतुरित्यर्थः । १२ कृतम् । १३ प्रियतमहस्ततल । १४ अपहरति स्म ।