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आदिपुराणम्
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नाटकानां सहस्वाणि द्वात्रिंशन्धमितानि ये सातोयानि सगेयानि यानि रम्याणि भूमिभिः ॥ ५९॥ सप्ततिः सहस्राणि पुरामिन्द्रपुरश्रियम् । स्वर्गलोक इवाभाति नृलोको यैरलंकृतः ॥ ६०॥ ग्रामकोच विज्ञेया विभोः षण्णवतिप्रमाः । नन्दनोद्देश जित्वर्यो यासामारामभूमयः ॥ ६१॥ द्रोणामुखसहस्राणि नवतिर्नव चैव हि। धनधान्यसमृद्धीनामधिष्ठानानि यानि वै ॥ ६२ ॥ पतनानां सहस्राणि चत्वारिंशसा खाकरा इवाभान्ति येषामुखा वणिश्याः ॥ ६३ ॥ पीय सहस्राणि खेानां पुरिमा मता । प्राकारगोपुराहाल खातवप्रादिशोमिनाम् ॥ ६४ ॥ भवेयुरन्तरदीपाः षट्पञ्चाशत्प्रमामिताः । कुमानुषजनाकीर्णा येऽर्णवस्य खिलायिताः ॥ ६५ ॥ वाहनां सहस्राणि संख्यातानि चतुर्दश । वहन्ति यानि लोकस्य योगक्षेमविद्याविधिम् ॥६६॥ स्थालीन कोटिकोका रन्धने या नियोजिता "पस्त्री स्थालीबिलीयानां तण्डुलानां महानसे ॥ ६७ ॥ कोटीशतसहखं स्पाइलानां कुटि: " समम् । "कर्मान्तकपणे यस्य विनियोगी निरन्तरः ॥ ६८ ॥ तिस्रोऽस्य वज्रकोपः स्युर्गाकुलैः शश्वदाकुलाः । यत्र मन्धरवाकृष्टास्तिष्ठन्ति स्माध्यगाः क्षणम् ॥ ६९ ॥ "प्रत्यन्तवासिनो यत्र न्यवात्सुः कृतसंक्षयाः ॥ ७० ॥
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'कुक्षिवासशतान्यस्य सप्तैवोक्तानि कोविदैः ।
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विभूति में बत्तीस हजार नाटक थे जो कि भूमियोंसे मनोहर थे और अच्छे-अच्छे बाजों तथा गानों सहित थे || ५९ ।। इन्द्रके नगर समान शोभा धारण करनेवाले ऐसे बहत्तर हजार नगर थे जिनसे अलंकृत हुआ यह नरलोक स्वर्गलोकके समान जान पड़ता था ।। ६० ।। उस चक्रवर्तीके ऐसे छियानवे करोड़ गाँव थे कि जिनके बगीचोंको शोभा नन्दन वनको भी जीत रही थी । ।। ६१ ।। जो धन-धान्यकी समृद्धियोंके स्थान थे ऐसे निन्यानबे हजार द्रोणामुख अर्थात् बन्दरगाह थे ।। ६२ ।। जिनके प्रशंसनीय बाजार रत्नाकर अर्थात् समुद्रोंके समान सुशोभित हो रहे थे ऐसे अड़तालीस हजार पत्तन थे ॥ ६३॥ जो कोट, कोटके प्रमुख दरवाजे अटारियाँ, परिखाएँ और परकोटा आदिसे शोभायमान हैं ऐसे सोलह हजार खेट थे ।। ६४ ।। जो कुभोगभूमि या मनुष्योंसे व्याप्त थे तथा समुद्रके सारभूत पदार्थके समान जान पड़ते थे ऐसे छप्पन अन्तरद्वीप थे ||६५|| जो लोगों के योग अर्थात् नवीन वस्तुओंकी प्राप्ति और क्षेम अर्थात् प्राप्त हुई वस्तुओंकी रक्षा करना आदि की समस्त व्यवस्थाओंको धारण करते थे तथा जिनके चारों ओर परिखा थी ऐसे चौदह हजार संवाह थे ।। ६६ ।। पकानेके काम आनेवाले एक करोड़ हुण्डे थे जो कि पाकशालामें अपने भीतर डाले हुए बहुत-से चावलोंको पकानेवाले थे ॥ ६७ ॥ फसल आनेके बाद जो निरन्तर खेतोंको जोतनेमें लगाये जाते हैं और जिनके साथ बोज वोनेकी नाली लगी हुई है ऐसे एक लाख करोड़ हल थे ।। ६८ ।। दही मथनेके शब्दोंसे आकर्षित हुए पथिक लोग जहाँ क्षण भरके लिए ठहर जाते हैं और जो निरन्तर गायोंके समूहसे भरी रहती हैं सी तीन करोड़ व्रज अर्थात् गौशालाएं थीं ।। ६९ ।। जहां आश्रय पाकर समीपवर्ती लोग आकर ठहरते थे ऐसे कुक्षिवासों की संख्या पण्डित लोगोंने सात सौ
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१ वेपैः । २ पुराणाम् । ३ जयशीलाः । ४ नवाधिकनवतिः । ५ प्रशस्ताः । ६ धूलिकुट्टिम । ७ अप्रतिहतस्थानाविताः 'हे खिलाप्रहते समे' इत्यभिधानात् ८ सखतानि ० ९ विधानप्रकारम् । १० पचने । । । ११ पचनकरी । १२ स्थालीबिल महन्तीति स्थालीबिलीयास्तेषाम् । पचनार्हताम् इत्यर्थः । १३ कोटीनां लक्षम् १४० अ०, प०, स० इ० कुलिभैः ल० कुटिभैः ८० १५ आसनफलविष
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१६ गोस्थानकम् 'जो गोछाध्ववृन्देषु' इत्यभिधानात् १७ रत्नानां क्रयविक्रयस्थान १८ छ । १९ निवसन्ति स्म । पहाड़ोंपर बसनेवाले नगर संवाह कहलाते हैं । जहाँ रत्नोंका व्यापार होता है उन्हें कुक्षिवास कहते है।