________________
षटत्रिंशत्तमं पव
२१.१ नास्यासीत् स्त्रीकृता बाधा मोगनिर्वेदमायुषः । शरीरमशुचि स्त्रैणं पश्यतश्चर्मपुत्रिकाम् ॥११९॥ स्थितश्चयां निषद्यां च शय्यां चासोढ हेलया । मनसाऽनमि संधिस्सनुपानच्छयनासनम् ॥१२०॥ स सेहे वधमाक्रोशं परमार्थविदां वरः । शरीरके स्वयं त्याज्ये निःस्पृहोऽनभिनन्दथुः ॥१२१॥ 'याचित्रियेण नास्येष्टा विष्वाणेन तनुस्थितिः । तेन वाचंयमो भूत्वा याञ्चाबाधामसोढ सः ॥१२२॥ जल्लं मलं तृणस्पर्श सोऽसोढो ढोत्तमक्षमः । व्युत्सृष्टतनुसंस्कारो निर्विशेषसुखासुखः'' ॥१३॥ रोगस्यायतनं देहमाध्यायन्धीरधीरसौ । विविधातका बाधां सहते स्म सुदुःसहाम् ॥१२४॥ प्रज्ञापरिषहं प्राज्ञो ज्ञानजं गर्वमुत्सृजन् । आसर्वज्ञं तदुत्कर्षात् स ससाह ससाहसः ॥१२५॥ स सत्कारपुरस्कारे नासीजातु समुत्सुकः । पुरस्कृतो मुदं नागात् सत्कृतो न स्म तुष्यति ॥१२६॥ परीषहमलामं च संतुष्टो जयति स्म सः । अज्ञानादर्शनोद्भता बाधासीमास्य योगिनः॥१२७॥
की इच्छा न रखनेवाले पुरुषको रति तथा अरतिकी बाधा नहीं होती ॥११८॥ भोगोंसे विरक्त हुए तथा स्त्रियोंके अपवित्र शरीरको चमड़ेको पुतलीके समान देखते हुए उन बाहुबली महाराजको स्त्रियोंके द्वारा की हुई कोई बाधा नहीं हुई थी अर्थात् वे अच्छी तरह स्त्रीपरिषह सहन करते थे ॥११९।। वे हमेशा खड़े रहते थे और जूता तथा शयन आदिकी मनसे भी इच्छा नहीं करते थे इसलिए उन्होंने चर्या, निषद्या और शय्या परिषहको लीला मात्रमें ही जीत लिया था ॥१२०॥ जो स्वयं नष्ट हो जानेवाले शरीरमें निःस्पृह रहते हैं और न उसमें कोई आनन्द ही मानते हैं ऐसे परमार्थके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ बाहुबली महाराज वध और आक्रोश परिषहको भी सहन करते थे ॥१२१।। याचनासे प्राप्त हुए भोजनके द्वारा शरीरकी स्थिति रखना उन्हें इष्ट नहीं था इसलिए वे मौन रहकर याचना परिषहकी बाधाको सहन करते थे ॥१२२॥ जिन्होंने उत्तम क्षमा धारण की है, शरीरका संस्कार छोड़ दिया है और जिन्हें सुख तथा दुःख दोनों ही समान हैं ऐसे उन मुनिराजने स्वेद मल तथा तृण स्पर्श परिषहको भी सहन किया था ॥१२३॥ 'यह शरीर रोगोंका घर है' इस प्रकार चिन्तवन करते ही वे धीर-वीर बुद्धिके धारक बाहुबली बड़ी कठिनतासे सहन करनेके योग्य रोगोंसे उत्पन्न हुई बाधाको भी सहन करते थे ॥१२४॥ ज्ञानका उत्कर्ष सर्वज्ञ होने तक है अर्थात् जबतक सर्वज्ञ न हो जावे तबतक ज्ञान घटता बढ़ता रहता है इसलिए ज्ञानसे उत्पन्न हुए अहंकारका त्याग करते हुए अतिशय बुद्धिमान् और साहसी वे मुनिराज प्रज्ञा परिषहको सहन करते थे । भावार्थ - केवलज्ञान होनेके पहले सभीका ज्ञान अपूर्ण रहता है ऐसा विचार कर वे कभी ज्ञानका गर्व नहीं करते थे ॥१२५।। वे अपने सत्कार पुरस्कारमें कभी उत्कण्ठित नहीं होते थे । यदि किसीने उन्हें अपने कार्यमें अगुआ बनाया तो वे हर्षित नहीं होते थे और किसीने उनका सत्कार किया तो सन्तुष्ट नहीं होते थे । भावार्थ - अपने कार्य में किसीको अगुआ बनाना पुरस्कार कहलाता है तथा स्वयं आये हुएका सम्मान करना सत्कार कहलाता है। वे मुनिराज सत्कार पुरस्कार दोनोंमें ही निरुत्सुक रहते थे - उन्होंने सत्कार पुरस्कार परिषह अच्छी तरह सहन किया था ॥१२६॥ सदा सन्तुष्ट रहनेवाले बाहुबलीजीने अलाभ परिषहको जीता था तथा अज्ञान और अदर्शनसे उत्पन्न होनेवाली बाधाएँ भी उन मुनिराजको नहीं हुई थीं ॥१२७।। १ निर्वेदं गतस्य । -मीयुषः प०, इ०, द०। २ स्त्रीसंबन्धि । ३ अभिसंधानमकुर्वन् । ४ पादत्राणः । 'पादूरुपानत् स्त्री' इत्यभिधानात् । ५ आनन्दरहितः । ६ यात्रनया निवृत्तेन । ७ भोजनेन । ८ तेन कारणेन । ९ मौनी भूत्वा । १० धृतः । ११ समानसुखदुःखः । १२ गृहम् । १३ स्मरन् । १४ ज्ञानोत्कर्षात् । उपर्युपरि केवलज्ञानादित्यर्थः । १५ सहते स्म ।