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षट्त्रिंशत्तम पर्व
मालिनी सकलनृपसमाजे दृष्टिमल्लाम्बुयुद्ध
विजितभरतकीर्तिर्यः प्रवव्राज मुक्त्यै । तृणमिव विगणय्य प्राज्यसाम्राज्यभारं
चरमतनुधराणामग्रणीः सोऽवताद् वः ॥२०॥ भरतविजयलक्ष्मीर्जाज्वलच्चक्रमूर्त्या
यमिनमभिसरन्ती क्षत्रियाणां समक्षम् । चिरतरमवधूतापत्रपापात्रमासी
दधिगतगुरुमार्गः सोऽवताद् दोर्बली वः ॥२०॥ स जयति जयलक्ष्मीसंग माशामवन्ध्यां
विदधदधिकधामा संनिधौ पार्थिवानाम् । सकलजगदगारव्यातकीर्तिस्तपस्या
मभजत यशसे यः सूनुराधस्य धातुः ॥२०६॥ जयति भुजबलीशो बाहुवीर्य स यस्य
प्रथितमभवदने क्षत्रियाणां नियुद्धे । भरतनृपतिनामा यस्य नामाक्षराणि
स्मृतिपथमुपयान्ति प्राणिवृन्दं पुनन्ति ॥२०७॥ जयति भुजगवस्त्रोद्वान्तनिर्यद्गराग्निः
प्रशममसकृदापत् प्राप्य पादौ यदीयौ। सकलभुवनमान्यः खेचरस्त्रीकराग्री
द्रथितविततवीरुद्वेष्टितो दोबलीशः ॥२०॥
जिन्होंने समस्त राजाओंकी सभामें दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध और जलयुद्धके द्वारा भरतको समस्त कीर्ति जीत ली थी, जिन्होंने बड़े भारी राज्यके भारको तृणके समान तुच्छ समझकर मुक्ति प्राप्त करनेके लिए दीक्षा धारण की थी और जो चरमशरीरियोंमें सबसे मुख्य थे ऐसे भगवान् बाहुबली तुम सबकी रक्षा करें ॥२०४॥ सब क्षत्रियोंके सामने भरतकी विजयलक्ष्मी देदीप्यमान चक्रकी मूर्तिके बहानेसे जिन बाहुबलीके समीप गयी थी परन्तु जिनके द्वारा सदाके लिए तिरस्कृत होकर लज्जाका पात्र हुई थी और जिन्होंने अपने पिताका मार्ग (मुनिमार्ग) स्वीकृत किया था वे भगवान् बाहबली तुम सबकी रक्षा करें॥२०५॥ जो अनेक राजाओंके सामने सफल हई जयलक्ष्मीके समागमकी आशाको धारण कर रहे थे. सबसे अधिक तेजस्वी थे, जिनकी कीर्ति समस्त जगत्रूपी घरमें व्याप्त थी और जिन्होंने वास्तविक यशके लिए तप धारण किया था वे आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेवके पुत्र सदा जयवन्त हों ॥२०६॥ जिनकी भुजाओंका बल क्षत्रियोंके सामने भरतराजके साथ हुए मल्लयुद्धमें प्रसिद्ध हुआ था, और जिनके नामके अक्षर स्मरणमें आते ही प्राणियोंके समूहको पवित्र कर देते हैं वे बाहबली स्वामी सदा जयवन्त हों ॥२०७॥ जिनके चरणोंको पाकर सर्पोके मुंहके उच्छ्वाससे निकलती हुई विषकी अग्नि बार-बार शान्त हो जाती थी, जो समस्त लोकमें मान्य हैं, और जिनके शरीरपर फैली हुई लताओंको विद्याधरियाँ अपने हाथोंके अग्रभागसे हटा देती थीं वे बाहुबली स्वामी
१ समझे । २ भृशं ज्वलत् । ३ भुजबलिना अवधीरता। ४ लज्जाभाजनम् । ५ संगवाञ्छाम् । ६ तप इत्यर्थः । ७ सह । ८ उपगतानि भूत्वा । ९ विषाग्निः ।