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त्रिंशत्तमं पर्व
अत्यन्तरसिकानादौ पर्यन्ते प्राणहारिणः । किंपाकपाकविषमान् विषयान् कः कृती भजेत् ॥७६॥ प्रहारदीप्ताग्निवज्राशनि महोरगाः । न तथोद्वेजकाः पुंसां यथाऽमी विषयद्विषः ॥ ७७ ॥ महाब्धिरौद्र संग्राम भीमारण्यसरिद्गिरीन् । भोगार्थिनो भजन्त्यज्ञा धनलाभ धनायया ॥ ७८ ॥ दीर्घदोर्घातनिर्घातनिर्घोषविषमीकृते । यादसां यादसां पत्यौ चरन्ति विषयार्थिनः ॥ ७६ ॥ समापतच्छरवातनिरुद्ध गगनाङ्गणम् । रणाङ्गणं विशन्त्यस्तभियो भोगैर्विलोभिताः ॥८०॥ चरन्ति वनमानुष्या यत्र सन्त्रासलोचनाः । ताः पर्यटन्त्यरण्यानीर्भोगाशोपहता जडाः ॥८१॥ सरितो विषमावर्तभीषणा ग्राहसंकुलाः । तितीर्षन्ति बताविष्टा" विषमैर्विषयग्र हैः ॥८२॥ आरोहन्ति दुरारोहान् गिरीनप्यमियोऽङ्गिनः " । रसायनरसज्ञान बलवादविमोहिताः ॥८३॥ अनिष्टवनितेवेयमालिङ्गति बलाजरा । कुर्वती पलितव्याजाद् रभसेन कचग्रहम् ॥८४॥
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भोगेष्वस्युत्सुकः प्रायो न च वेद" हिताहितम् । भुक्तस्य जरसा जन्तोर्मृतस्य च किमन्तरम् ॥८५॥ प्रसह्य पातयन् भूमौ गात्रेषु कृतवेपथुः । जरापातो " नृणां कष्टो ज्वरः शीत इवोद्भवन् ॥८६॥
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कड़वे ( दुःख देनेवाले ) जान पड़ते हैं ऐसे विषयोंके लिए यह अज्ञ प्राणी क्या व्यर्थ ही अनेक दुःखों को प्राप्त नहीं होता है ? ।। ७५ ।। जो प्रारम्भ कालमें तो अत्यन्त आनन्द देनेवाले हैं और अन्तमें प्राणोंका अपहरण करते हैं ऐसे किंपाक फल (विषफल) के समान विषम इन विषयोंको कौन बुद्धिमान् पुरुष सेवन करेगा ? || ७६ ॥ | ये विषयरूपी शत्रु प्राणियोंको जैसा उद्वेग करते हैं वैसा उद्वेग शस्त्रोंका प्रहार, प्रज्वलित अग्नि, वज्र, बिजली और बड़े-बड़े सर्प भी नहीं कर सकते हैं ||७७|| भोगोंको इच्छा करनेवाले मूर्ख पुरुष धन पानेकी इच्छासे बड़े-बड़े समुद्र, प्रचण्ड युद्ध, भयंकर वन, नदी और पर्वतोंमें प्रवेश करते हैं ||७८|| विषयोंकी चाह रखनेवाले पुरुष जलचर जीवोंकी लम्बी-लम्बी भुजाओंके आघातसे उत्पन्न हुए वज्रपात - जैसे कठोर शब्दों से क्षुब्ध हुए समुद्र में भी जाकर संचार करते हैं ॥ ७९ ॥ भोगोंसे लुभाये हुए पुरुष, चारों ओरसे पड़ते हुए बाणोंके समूहसे जहाँ आकाशरूपी आँगन भर गया है ऐसे युद्ध के मैदान में भी निर्भय होकर प्रवेश कर जाते हैं ||८०|| जिनमें वनचर लोग भी भयसहित नेत्रोंसे संचार करते हैं ऐसे भयंकर बड़े-बड़े वनोंमें भी भोगोंकी आशासे पीड़ित हुए मूर्ख मनुष्य घूमा करते हैं ॥ ८१ ॥ कितने दुःखकी बात है कि विषयरूपी विषम ग्रहोंसे जकड़े हुए कितने ही लोग, ऊँची-नीची भँवरोंसे भयंकर और मगरमच्छोंसे भरी हुई नदियोंको भी पार करना चाहते हैं ॥ ८२ ॥ रसायन तथा रस आदिके ज्ञानका उपदेश देनेवाले धूर्तोंके द्वारा मोहित होकर उद्योग करनेवाले कितने ही पुरुष कंठिनाईसे चढ़ने योग्य पर्वतोंपर भी चढ़ जाते हैं || ८३ ॥ | यह जरा सफेदबालोंके बहानेसे वेगपूर्वक केशोंको पकड़ती हुई अनिष्ट स्त्रीके समान जबरदस्ती आलिंगन करती है ॥ ८४ ॥ जो प्राणी भोगोंमें अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहा है वह हित और अहितको नहीं जानता तथा जिसे वृद्धावस्थाने घेर लिया है उसमें और मरे हुए में क्या अन्तर है ? अर्थात् बेकार होनेसे वृद्ध मनुष्य भी मरे हुएके समान है ॥ ८५ ॥ यह बुढापा मनुष्यको शीतज्वरके समान अनेक कष्ट देनेवाला है क्योंकि जिस प्रकार शीतज्वर उत्पन्न होते ही जबरदस्ती जमीनपर
१ अम्बीरपक्वफल । २ वज्ररूपाशनि । ३ भयंकराः । ४ धनलाभवाञ्छया । ५ अशनि । ६ जलजन्तूनाम् । 'यादांसि जलजन्तवः' इत्यभिधानात् । यादसां पत्यो समुद्रे । 'रत्नाकरो जलनिधिर्यादः पतिरपां पतिः ' इत्यभिधानात् । ७ वनेचराः । ८ भयसहिताः । ९ तरीतुमिच्छन्ति । १० ग्रस्ता इत्यर्थः । ११ - व्यभियोगिनः ल०, प०, अ०, इ० । १२ पलितस्तम्भौषधसिद्धरसज्ञानाज्जातबलवादान्मोहिताः । १३ भोक्तुं योग्यवस्तुषु । १४ न जानाति । १५ भेदः । १६ बलात्कारेण । १७ कम्पः । ९८ प्राप्तिः ।