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षत्रिंशत्तमं पर्व भरतेशः किलात्रापि न यदाप जयं तदा । बलैर्भुजबलीशस्य भूयोऽप्युद्धोषितो जयः ॥५६॥ नियुद्धमर्थ' संगीर्य नृसिंहो सिंहविक्रमौ । धारावाविष्कृतस्पद्वौं तो रङ्गमवतरतुः ॥५७॥ 'वल्गितास्फोटितैश्विः धरणैर्बन्ध पीलितैः । दोर्दपंशालिनोरासीद बाहुयुद्धं तयोर्महत् ॥१८॥ ज्वलन्मुकुटभाचक्रो हेलयोङ्गमितोऽमुना । लीलामलातचक्रस्य चक्री भैजे क्षणं भ्रमन् ॥१९॥ यवीयान् नृपशार्दूलं ज्यायांसं जितभारतम् । जित्वाऽपि नानयद् भूमि प्रभुरित्यव गौरवात् ॥६॥ 'भुजोपरोधमुत्य स तं धत्ते स्म दोबली । हिमाद्विमिव नीलाद्विमहाकटकभास्वरम् ॥६१॥ तदा कलकलश्चक्रे पश्यैर्भुजबली शिवः । नृपैर्भरतगृह्येस्तु लजया नमितं शिरः ॥६२॥ समक्षमीक्षमाणेपु पार्थिवेपूभयेष्वपि । परां विमानतां'' प्राप्य ययौ चक्री विलक्षताम् ॥६३॥ बद्धभ्रुकुटिरुद्रान्तरुधिरारुणलोचनः । क्षणं दुरीक्षतां भेजे चक्री प्रज्वलितः क्रुधा ॥६४॥ क्रोधान्धेन तदा दध्ये कर्तुमस्य पराजयम् । चक्रमुत्कृत्तनिः शेषद्विषश्चक्र निधीशिना ॥६५॥
आध्यानमात्रमत्याराददः कृत्वा प्रदक्षिणाम् । अवध्यस्यास्य पर्यन्तं तस्थौ मन्दीकृतातपम् ।६६। धनुष । इसलिए बाहुबलीके द्वारा छोड़ा हुआ पानी भरतके मुख तथा वक्षःस्थलपर पड़ता था परन्तु भरतके द्वारा छोड़ा हुआ पानी बीच में ही रह जाता था - बाहुबलीके मुख तक नहीं पहुँच पाता था ।।५५।। इस प्रकार जब भरतेश्वरने इस जलयुद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं की तब बाहुबलीकी सेनाओंने फिरसे अपनी विजयकी घोषणा कर दी ।।५६।। अथानन्तर सिंहके समान पराक्रमको धारण करनेवाले धीरवीर तथा परस्पर स्पर्धा करनेवाले वे दोनों नरशार्दूल – श्रेष्ठ पुरुप बाहुयुद्धकी प्रतिज्ञा कर रंगभूमिमें आ उतरे ।।५७॥ अपनी-अपनी भुजाओंके अहंकारसे सुशोभित उन दोनों भाइयोंका, अनेक प्रकारसे हाथ हिलाने, ताल ठोकने, पैंतरा बदलने और भुजाओंके व्यायाम आदिसे बड़ा भारी बाहु युद्ध ( मल्ल युद्ध ) हुआ ॥५८॥ जिसके मुकुटकी दीप्तिका समूह अतिशय देदीप्यमान हो रहा है ऐसे भरतको बाहुबलीने लीला मात्र में ही घुमा दिया और उस समय घूमते हुए चक्रवर्तीने क्षण-भरके लिए अलातचक्रकी लीला धारण की थी ॥५९॥ बाहुबलीने राजाओंमें श्रेष्ठ, बड़े तथा भरत क्षेत्रको जीतनेवाले भरतको जीतकर भी 'ये बड़े हैं'इ सी गौरवसे उन्हें पृथिवीपर नहीं पटका ॥६०॥ किन्तु भुजाओंसे पकड़कर ऊंचा उठाकर कन्धेपर धारण कर लिया। उस समय भरतेश्वरको कन्धेपर धारण करते हए बाहबली ऐसे जान पड़ते थे मानो नीलगिरिने बड़े-बड़े शिखरोंसे देदीप्यमान हिमवान पर्वतको ही धारण कर रखा हो ॥६१।। उस समय बाहुबलीके पक्षवाले राजाओंने बड़ा कोलाहल मचाया और भरतके पक्ष के लोगोंने लज्जासे अपना शिर झुका लिया ॥६२॥ दोनों पक्षके राजाओंके साक्षात् देखते हुए चक्रवर्ती भरतका अत्यन्त अपमान हुआ था इसलिए वे भारी लज्जा और आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥६३॥ जिसने भौंहें चढ़ा ली हैं, जिसकी रक्तके समान लाल-लाल आँखें इधर-उधर फिर रही हैं और जो क्रोधसे जल रहा है ऐसा वह चक्रवर्ती क्षणभरके लिए भी दुनिरीक्ष्य हो गया अर्थात् वह क्रोधसे ऐसा जलने लगा कि उसे कोई क्षण-भर नहीं देख सकता था ॥६४॥ उस समय क्रोधसे अन्धे हुए निधियोंके स्वामी भरतने बाहुबलीकी पराजय करनेके लिए समस्त शत्रुओंके समूहको उखाड़कर फेंकनेवाले चक्ररत्नका स्मरण किया ॥६५॥ स्मरण करते ही वह चक्ररत्न भरतके समीप आया, भरतने बाहुबलीपर चलाया
१ बाहयुद्धम् । २ प्रतिज्ञां कृत्वा । ३ प्रविष्टावित्यर्थः । ४ वल्गनभुजास्फालनः । वलिता -प०, इ० । ५ पदाचारिभिः । ६ बाहुबन्ध । ७ काष्ठा ग्निभ्रमणस्य। ८ अनुजः । ९ ज्येष्ठम् । १० बाहुपीडनं यथा भवति तथा । ११ परिभवम् । १२ विस्मयान्वितम। १३ उच्छिन्न । - मुक्षिप्त - ल०, द०। १४ स्मृत । १५ एतच्चक्रम् । १६ भुजबलिनः । १७ समीपे ।