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पश्चत्रिंशत्तम पर्व
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जयति जयविलासः सूच्यते यस्य पाष्प
___ रलिकुलतरुगर्भनिर्जितानङ्गमुक्तः । 'अनुपदयुगमस्वैर्भङ्गशोकादियावि
___ कृतकरुणनिनादैः सोऽयमाद्यो जिनेन्द्रः ॥२३९॥ जयति जितमनोभूर्भूरिधामा स्वयम्भू
जिनपतिरपरागः क्षालितागः परागः । सुरमुकुटविटङ्कोदृढ पादाम्बुजश्री:
जगद जगदगारप्रान्तविश्रान्तबोधः ॥२४॥ जयति मदनबाणैरक्षतात्मापि योऽधात् ।
त्रिभुवनजयलक्ष्मीकामिनी वक्षसि स्वे । स्वयमवृत च मुक्तिप्रेयसी यं विरूपा
प्यनवम सखतातिं तन्वती सोऽयमहन् ॥२४॥ जयति समरभरीभैरवारावभीम
बलमरचि न कूजच्चण्डकोदण्डकाण्डम् । भृकुटिकुटिलमास्यं यन नाकारि वोच्चैः
मनसिजरिपुधात सोऽयमाद्यो जिनेशः ॥२४२॥ स जयति जिनराजो दुर्विभाव"प्रभावः
प्रभुरभिभवितुं यं ''नाशकन्मारवोरः । दिविजविजयदुरारूढगर्वोऽपि गर्व
न हृदि हृदिशयोऽधाद् यन्त्र "कुण्ठास्त्रवीर्यः ॥२४३॥ रहे हैं ऐसे श्री अर्हन्तदेव सदा जयवन्त रहें ॥२३८॥ जिनके भीतर भ्रमरोंके समूह गुंजार कर रहे हैं और उनसे जो ऐसे मालूम होते हैं मानो अपनी पराजयके शोकसे रोते हुए कामदेवके करुण क्रन्दनको ही प्रकट कर रहे हों तथा उसी हारे हुए कामदेवने अपने पुष्परूपी शस्त्र भगवान्के चरण-युगलके सामने डाल रखे हों ऐसे पुष्पोंके समूहसे जिनके विजयकी लीला सूचित होती है वे प्रथम जिनेन्द्र श्री वृषभदेव जयवन्त हों ।।२३९।। जिन्होंने कामदेवको जीत लिया है, जिनका तेज अपार है, जो स्वयंभू हैं, जिनपति हैं, वीतराग हैं, जिन्होंने पापरूपी धूलि धो डाली है, जिनके चरणकमलोंकी शोभा देव लोगोंने अपने मुकुटके अग्रभागपर धारण कर रखी है और जिनका ज्ञान लोक-अलोकरूपी घरके अन्त तक फैला हुआ है ऐसे श्री प्रथम जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ।।२४०।। जिनकी आत्मा कामदेवके बाणोंसे घायल नहीं हुई है तथापि जिन्होंने तीनों लोकोंकी जयलक्ष्मीरूपी स्त्रीको अपने वक्षःस्थलपर धारण किया है और मुक्तिरूपी स्त्रीने जिन्हें स्वयं वर बनाया इसके सिवाय वह मुक्तिरूपी स्त्री विरूपा अर्थात् कुरूपा (पक्षमें आकाररहित) होकर भी जिनके लिए उत्कृष्ट सुख-समूहको बढ़ा रही है वे अर्हन्तदेव सदा जयवन्त हों ॥२४१।। जिन्होंने जगद्विजयी कामदेवरूपी शत्रुको नष्ट करनेके लिए न तो युद्धके नगाड़ोंके भयंकर शब्दोंसे भीषण तथा शब्द करते हुए धनुषोंसे युक्त सेना ही रची और न अपना मुँह ही भौंहोंसे टेढ़ा किया वे प्रथम जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेव सदा जयवन्त रहें ॥२४२।। जो सब जगत्के स्वामी हैं, कामदेवरूपी योद्धा भी जिन्हें जीतने१ पदयुगसमीपे । २ बहलतेजाः । ३ अपगतरागः । ४ बलभ्या वृत । ५ लोकालोकालयप्रान्त । ६ धारयति स्म । ७ अमूर्तापि, कुरूपापीति ध्वनिः । ८ अप्रमितसुखपरम्पराम् । ९ जिनेन्द्रः ल०, द०। १० अचिन्त्य । ११ समर्थो ना भूत् । १२ अत्यर्थ । १३ सर्वज्ञे । १४ मन्द । 'कुण्ठो मन्दः क्रियासु च' इत्यभिधानात् ।