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षट्त्रिंशत्तमं पर्व
अथ दूतवचश्चण्डमरुदाघातपूर्णितः । प्रचचाल बलाम्भोधिर्जिष्णोरारुध्य रोदसी ॥१॥ साङ्ग्रामिक्यो महाभेर्यस्तदा धीरं प्रदधनुः । यद्ध वानैः साध्वसं भेजुः खड्गव्यग्रा नभश्च राः ॥२॥ बलानि प्रविभक्तानि निधीशस्य विनिर्ययुः । पुरः पादातमश्वीयमारादाराच्च हास्तिकम् ॥३॥ रथकट्यापरिक्षेपो बलस्योभयपक्षयोः । अग्रतः पृष्टतश्चासीदूवं च खचरामराः ॥४॥ षडङ्गबलसामग्रया सम्पन्नः पार्थिवैरमा । प्रतस्थे भरताधीशो निजानुजजिगीषया ॥५॥ महान् गजघटाबन्धो रेजे सजयकेतनः । गिरीणामिव संघातः संचारी सह शाखिभिः ॥६॥ १३च्योतन्मदजलासारसिक्तभूमिर्गदद्विपैः । प्रतस्थे रुद्वदिक्चक्रः शैलैरिव सनिझरैः ॥७॥ जयस्तम्बरमा रेजुस्तुगाः शृङ्गारिताङ्गकाः । सान्द्रसंध्यातपक्रान्ताश्चलन्त इव भूधराः ॥८॥ चमूमतङ्गजा रेजुः सजाः सजयकेतनाः। कुलशैला इवायाताः प्रभोः स्वबलदर्शने ॥९॥ गजस्कन्धगता रेजुबूंर्गता विस्ताङकुशाः । प्रदीप्तोद्भटनेपथ्या दर्पाः संपिण्डिता इव ॥१०॥
अथानन्तर-दूतके वचनरूपी तेज वायुके आघातसे प्रेरित हआ चक्रवर्तीका सेना रूपी समुद्र आकाश और पृथिवीको रोकता हुआ चलने लगा ॥१॥ उस समय युद्धकी सूचना करनेवाले बड़े-बड़े नगाड़े गम्भीर शब्दोंसे बज रहे थे और उनके शब्दोंसे तलवार उठानेमें व्यग्र हुए विद्याधर भयभीत हो रहे थे ॥२॥ चक्रवर्तीकी सेनाएँ अलंग-अलग विभागोंमें विभक्त होकर चल रही थीं, सबसे आगे पैदल सैनिकोंका समूह था, उससे कुछ दूरपर घोड़ोंका समूह था और उससे कुछ दूर हटकर हाथियोंका समूह था ॥३।। सेनाके दोनों ओर रथोंके समूह थे तथा आगे पीछे और ऊपर विद्याधर तथा देव चल रहे थे॥४॥ इस प्रकार छह प्रकारकी सेनासामग्रीसे सम्पन्न हुए महाराज भरतेश्वरने अपने छोटे भाईको जीतनेकी इच्छासे अनेक राजाओंके साथ प्रस्थान किया ॥५॥ उस समय विजय-पताकाओंसे सहित बड़े-बड़े हाथियोंके समूह ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो वृक्षोंके साथ-साथ चलते हुए पर्वतोंके समूह ही हों ॥६॥ जिनसे झरते हुए मदजलकी वृष्टिसे समस्त भूमि सींची गयी है और जिन्होंने सब दिशाएँ रोक ली हैं ऐसे मदोन्मत्त हाथियोंके साथ चक्रवर्ती भरत चल रहे थे, उस समय वे हाथी ऐसे मालूम होते थे मानो झरनोंसे सहित पर्वत ही हों ॥७॥ जिनके समस्त शरीरपर शृंगार किया गया हो और जो बहुत ऊँचे हैं ऐसे वे विजयके हाथी ऐसे सुशोभित होते थे मानो सन्ध्याकालकी सघन धूपसे व्याप्त हुए चलते-फिरते पर्वत ही हों ।।८। जो सब प्रकारसे सजाये गये हैं और जिनपर विजय-पताकाएं फहरा रही हैं ऐसे वे सेनाके हाथी इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो महाराज भरतको अपना बल दिखानेके लिए कुलाचल ही आये हों ॥९॥ जिन्होंने देदीप्यमान तथा वीररसके योग्य वेष धारण किया है, और जिन्होंने अंकुश हाथमें ले रखा है ऐसे हाथियोंके कन्धोंपर बैठे हुए महावत लोग ऐसे जान पड़ते थे मानो एक जगह
१ द्यावापृथिव्यो। २ युद्धहेतवः । ३ सुध्वानः ल०। ४ आयुधस्वीकारव्याकुलाः । ५ संकरमकृत्वा प्रविभाजितानि । ६ समीपे । ७ रथसमूहपरिवृत्तिः । ८ उभयपार्श्वयोरित्यर्थः, मौलवैतनिकयोः, मूलं कारणं पुरुष प्राप्ताः । वेतनेन जीवन्तो वैतनिकाः । ९ सह । १० आसमूहः । ११ वृक्षः । १२ स्रवत् । १३ वेगवद्वर्ष । 'धारासंपात आसारः' । १४ सन्नद्धीकृताः । १५ निजबलदर्शने । १६ गजारोहकाः । १७ वीररसालंकाराः ।