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षट्त्रिंशत्तमं पर्व
२०१ कौक्षेयकैर्निशाता प्रधाराप्रैः सादिनों बभुः । मूर्तीभूय भुजोपाग्रलग्नैर्वा स्वैः पराक्रमैः ॥११॥ धन्विनः शरनाराच संध्तेषुधयों बभुः । वनक्ष्माजा महाशाखाः कोटरस्थैरिवाहिभिः ॥१२॥ रथिनो रथकट्यासु संभृतोचितहतयः । सङग्रामवार्धितरणे प्रस्थिता नाविका इव ॥१३॥ मटा हस्त्युरसं भेजः सशिरस्वतनुत्रकाः । समुत्खातनिशातासिपागयः पादरक्षगे ॥१४॥ पुस्फुरः" स्फुरदस्त्रीवा मटाः संदंशिताः परे । औत्पातिका इवानीलाः सोल्का मेघाः समुत्थिताः॥१५॥ करवालं करालाग्रं करे कृत्वा मटोऽपरः । पश्यन् मुखरसं तस्मिन् “स्वशौर्य परिजज्ञिवान् ॥१६॥ कराग्रविधुतं खड्गं तुलयन् कोऽप्यमाद् मरः । "प्रमिमित्सुरिवानेन स्वामिसत्कारगौरवम् ॥ १ ॥ महामुकुटबद्धानां साधनानि प्रतस्थिरे । पादातहास्तिकाश्वीयरथकव्यापरिच्छदैः ॥१८॥ बभुमुकुटबद्धास्ते रत्नांशूदग्रमौलयः । सलीलालोकपालानामंशा भुवमिवागताः ॥१९॥ परिवेष्ट्य निरैयन्त 'पार्थिवाः पृथिवीश्वरम् । दूरातु स्वबलसामग्री दर्शयन्तो यथायथम् ॥२०॥
२२प्रत्यग्रसमरारम्भसंश्रवोद्धान्तचेतसः । २ मटीराश्वासयामासुर्भटाः प्रत्याय्य धीरितैः ॥२१॥ इकट्ठा हुआ अभिमान ही हो ॥१०॥ घुड़सवार लोग, जिनकी आगेकी धारका अग्रभाग बहुत तेज है ऐसी तलवारोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानो उनके पराक्रम ही मूर्तिमान् होकर उनकी भुजाओंके अग्रभाग अर्थात् हाथोंमें आ लगे हों ॥११॥ जिनके तरकस अनेक प्रकारके बाणोंसे भरे हुए हैं ऐसे धनुर्धारो लोग इस प्रकार जान पड़ते थे मानो बड़ी-बड़ी शाखावाले वनके वृक्ष कोटरोंमें रहनेवाले सोसे ही सुशोभित हो रहे हों ॥१२॥ जिन्होंने रथोंके समूहमें युद्धके योग्य सब शस्त्र भर लिये हैं ऐसे रथोंपर बैठनेवाले योद्धा लोग इस प्रकार चल रहे थे मानों युद्धरूपी समुद्रको पार करनेके लिए नाव चलानेवाले खेवटिया ही हों ॥१३॥ जिन्होंने शिरपर टोप और शरीरपर कवच धारण किया है तथा हाथमें पैनी तलवार ऊंची उठा रखी है ऐसे कितने ही योद्धा लोग हाथियोंके पैरोंकी रक्षा करनेके लिए उनके सामने चल रहे थे ॥१४॥ जिनके हाथोंमें शस्त्रोंके समूह चमक रहे हैं और जो लोहेके कवच पहने हुए हैं ऐसे कितने ही योद्धा ऐसे देदीप्यमान हो रहे थे मानो किसी उत्पातको सूचित करनेवाले उल्कासहित काले काले मेघ ही उठ रहे हों ॥१५॥ कोई अन्य योद्धा पैनी धारवाली तलवार हाथमें लेकर उसमें अपने मुखका रंग देखता हुआ अपने पराक्रमका परिज्ञान प्राप्त कर रहा था ॥१६॥ कोई अन्य योद्धा हाथके अग्र भागपर रखी हुई तलवारको तोलता हुआ ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो वह उससे अपने स्वामीके आदर-सत्कारका गौरव ही तोलना चाहता हो ॥१७॥ पैदल सेना, हाथियोंके समूह, घुड़सवार और रथोंके समूह आदि सामग्रीके साथ-साथ महामुकुटबद्ध राजाओंकी सेनाएं भी चल रही थीं ॥१८॥ रत्नोंकी किरणोंसे जिनके मुकुट ऊँचे उठ रहे हैं ऐसे वे मुकुटबद्ध राजा इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो लीलासहित लोकपालोंके अंश ही पृथ्वीपर आ गये हों ॥१९॥ अनेक राजा लोग महाराज भरतको घेरकर चल रहे थे और दूरसे ही अपनी सेनाकी सामग्री यथायोग्यरूपसे दिखलाते जाते थे ॥२०॥ नवीन
१ निशित । २ अश्वारोहाः । 'अश्वारोहास्तु सादिनः' इत्यभिधानात् । ३ इव । ४ प्रक्ष्वेडनास्तु नाराचाः । ५ इषुधिः तूणीरः । 'तूणोपासङ्गतूणीरनिषगा इषुधियोः । तूण्यामित्यभिधानात् । संभृतेषुवमः ल.,द.. अ०, १०, स०, इ०। ६ समरसमुद्रोत्तरणार्थम् । ७ कर्णधाराः । 'कर्णधारस्तु नाविकः' इत्यभिधानात । ८ हस्तिमुख्यम् । ९ कवच । १० पादरक्षार्थम् । ११ स्फुरन्ति स्म । १२ कवचिताः । 'संनद्धो वर्मितः सज्जो दंशितो व्यूढकण्टकः' इत्यभिधानात् । १३ उत्पातहेतवः । १४ स्वं शौर्यम् ल०। १५ बुबुधे। १६ प्रमातुमिच्छः । प्रतिमित्सु - द०, ल०, ५०, इ०, अ०, स० । १७ खड्गेन सह । १८ बलानि । १९ परिकरैः । २० केचिल्लोकपाला इत्यर्थः । २१ निर्ययुः । २२ नूतनरणाम्भसंश्रवणादुद्भ्रान्तचेतो यासां तास्ताः । २३ भटयोषितः । २४ विश्वास्य । २५ धीरवचनैः ।
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