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आदिपुराणम् साप्राऽपि दुकां साच्या वपमित्युपसंहने । तत्रा लेकं प्रयुञ्जानो व्यक्तं सुग्वायते भवान् ।।१०४।। वपसाधिक इन्यत्र न इलाध्यो भरताधिपः । जरन्नपि गतः कलां गाइत कि हरेः शिशोः ॥१०५।। प्रणयः प्रश्रयश्चेति संगतए सनाभिपु । तेष्वेवासंगतेष्वङ्ग तवयस्य हता गतिः ।।१०६॥ ज्येष्ठः प्रगम्य इत्येत काममस्त्वन्यदा सड़ा । मूशिपितखड्गस्य प्रणाम इति कः क्रमः ।।१०७॥ दृत नो दृयते चित्तभन्यो-सेकानुवर्गनेः' ° । तेजस्वी भानुरेवैकः किमन्योऽप्यस्त्यतः परम् ॥१०८।। राजोतिर्मयि तस्भिश्च' संविभनाऽदिवेधसा । राजराजः स इत्यद्य स्फोटो गण्डस्य मूर्धनि ॥१०९॥ कामं स राजराजोऽस्तु रत्नांतोऽतिगृध्नुताम् । वयं राजान इत्येव सौराज्ये स्वे व्यवस्थिताः ॥११॥ बालानि छलादस्मान् आहृय प्रणमय्य च। पिण्डीखण्ड इवाभाति महीखण्डस्तदर्पितः ।।११।। स्वडोदमफलं श्लाघ्यं यकिचन मनस्विनाम् । न चातुरन्तमप्यैश्यं परभ्रलतिकाफलम् ॥११२॥
हे दूत, हम लोग शान्तिसे भी वश नही किये जा सकते यह निश्चय होनेपर भी आप हमारे साथ अहंकारका प्रयोग कर रहे हैं, इससे स्पष्ट मालूम होता है कि आप मूर्ख हैं ॥१०४।। भरतेश्वर उमरमें बड़े हैं इतने ही से वे प्रशंसनीय नहीं कहे जा सकते क्योंकि हाथी बूढ़ा होनेपर भी क्या सिंहके बच्चेकी बराबरी कर सकता है ? ॥१०५।। हे दूत, प्रेम और विनय ये दोनों परस्पर मिले हुए कुटुम्बी लोगोंमें ही सम्भव हो सकते हैं, यदि उन्हीं कुटुम्बियोंमें विरोध हो जावे तो उन दोनों ही की गति नष्ट हो जाती है। भावार्थ-जबतक कुटुम्बियोंमें परस्पर मेल रहता है तबतक प्रेम और विनय दोनों ही रहते हैं और ज्यों ही उनमें परस्पर विरोध हुआ त्यों ही दोनों नष्ट हो जाते हैं ॥१०६॥ बड़ा भाई नमस्कार करने योग्य है यह बात अन्य समयमें अच्छी तरह हमेशा हो सकती है परन्तु जिसने मस्तकपर तलवार रख छोड़ी है उसको प्रणाम करना यह कौन-सी रीति है ? ॥१०७॥ हे दूत, दूसरेके अहंकारके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे हमारा चित्त दुःखी होता है, क्योंकि संसार में एक सूर्य हो तेजस्वी है । क्या उससे अधिक और भी कोई तेजस्वी है ॥१०८॥ आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेवने 'राजा' यह शब्द मेरे लिए और भरतके लिए-दोनोंके लिए दिया है, परन्तु आज भरत 'राजराज' हो गया है सो यह कपोलके ऊपर उठे हुए गूमड़ेके समान व्यर्थ है ।। १०९।। अथवा रत्नोंके द्वारा अत्यन्त लोभको प्राप्त हुआ वह भरत अपने इच्छानुसार भले ही 'राजराज' रहा आवे, हम अपने धर्मराज्यमें स्थिर रहकर राजा ही बने रहेंगे ॥११०। वह भरत बालकोंके समान छलसे हम लोगोंको बुलाकर और प्रणाम कराकर कुछ पृथिवी देना चाहता है तो उसका दिया हुआ पृथिवीका टुकड़ा खलीके टुकड़ेके समान तुच्छ मालूम होता है ॥१११॥ तेजस्वी मनुष्योंके लिए जो कुछ थोड़ाबहुत अपनी भुजारूपी वृक्षका फल प्राप्त होता है वही प्रशंसनीय है, उनके लिए दूसरेको भौहरूपी लताका फल अर्थात् भौंहके इशारेसे प्राप्त हुआ चार समुद्रपर्यन्त पृथिवीका ऐश्वर्य भी
१ विरति गते सति । २ तत्र तूष्णीं स्थिते पुंसि । उत्सेकं साहसम्, गर्वमित्यर्थः । ३ समानताम । ४ प्राप्नोति । ५ स्नेहः । ६ विनयः । ७ भोः । ८ प्रणयप्रश्रयस्य । ९ अस्माकम् । १० वर्तनैः ल०, द०. अ०, १०, स०। ११ भानोः सकाशादन्यः । १२ भरते। १३ आदिब्रह्मणा । १४ भरतेश्वरपक्षे राज्ञां प्रभूणां राजा राजराजः; राज्ञां यक्षाणां राजा राजराजः लोजित इति ध्वनिः । भुजबलिपक्षे तिम्रः शक्तयः षड्गुणाः चतुरुषायाः सप्ताङ्गराज्यानि एतैर्गुण राजन्त इति राजानः । १५ पिटकः । 'विस्फोट. पिटकस्त्रिप' इत्यभिधानात् । १६ गलगण्डस्य । 'गलगण्डो गण्डमाला' इत्यभिधानात् । १७ उपरीत्यर्थः । १८ कुबेर इति ध्वनिः । १९ सुराज्यव्यापारे । २० आत्मीये । २१ बलादिव द० । २२ व्याजात् । २३ नमस्कारयित्वा । २४ पिण्याकशकलः । २५ भरतेन दत्तः । २६ चत्वारो दिगन्तो यस्य तत् । २७. प्रभुत्वम् ।