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आदिपुराणम् 'तदेत्य द्रुतमायुग्मन् पूरयास्य मनोरथम् । युवयोरस्तु सांगयात् संगतं निखिलं जगत् ।।८।। इति तद्वचनस्यान्ते कृतमन्दस्मितो युवा । धीरं वची गभीरार्थमाचचक्षे विचक्षणः ॥४९॥ साधूक्तं साधुवृत्तत्वं स्वया घटयता प्रभोः । वाचस्पत्यं तदेवेष्टं पोषकं स्वमतस्य यत् ॥९॥ साम दर्शयता नाम भेददण्डी विशेषतः । प्रयुञ्जानेन साध्येऽथे स्वातन्त्र्यं दर्शितं त्वया ॥९॥ स्वतन्त्रस्य प्रभोः सत्यं स त्वमन्तश्चरश्चरः । अन्यथा कथमेवास्य व्यनक्ष्यन्तर्गतं गतम् ॥१२॥ 'निसृष्टार्थतयाऽस्मामु निर्दिष्टस्त्वं निधीशिना । विशिष्टोऽसि न वैशिष्टयं परमर्मस्पृगीदृशम् ॥१३॥ अयं खलु खलाचारो यबलात्कारदर्शनम् । स्वगुणोत्कीर्तनं दोषोद्भावनं च परेषु यत् ।।१४।। विवृणोति खलोऽन्येषां दोषान् स्वांश्च गुणान् स्वयम् । संवृणोति च दोषान् स्वान् परकीयान गुणानपि ॥९५॥ अनिराकृतसंतापां सुमनोभिः समुज्झिताम् । फलहीनां श्रयत्यज्ञः' खलतांखलतामिव ॥९६।। सतामसंमतां विष्वगाचितां विरसः फलैः । मन्ये दुःखलतामेनां खलतां लोकतापिनीम् ॥९७।। सोपप्रदानं सामादौ प्रयुक्तमपि बाध्यते । पराभ्यां भेददण्डाभ्यां न्याय्य विप्रतिषेधिनि ॥९॥
हो रहे हैं ।।८७॥ इसलिए हे दीर्घायु कुमार, आप शीघ्र ही चलकर इसके मनोरथ पूर्ण कीजिए। आप दोनों भाइयोंके मिलापसे यह समस्त संसार मिलकर रहेगा ।।८८। इस प्रकार उस दूतके कह चुकनेके बाद चतुर और जवान बाहुबली कुमार कुछ मन्द-मन्द हँसकर गम्भीर अर्थसे भरे हुए धीर वीर वचन कहने लगे ।।८९॥ वे बोले कि हे दूत, अपने स्वामीकी साधु वृत्तिको प्रकट करते हुए तूने सब सच कहा है क्योंकि जो अपने मतकी पुष्टि करनेवाला हो वही कहना ठीक होता है ॥९०॥ साम अर्थात् शान्ति दिखलाते हुए तूने विशेषकर भेद और दण्ड भी दिखला दिये हैं तथा उनका प्रयोग करते हुए तूने यह भी बतला दिया कि तू अपना अर्थ सिद्ध करने में कितना स्वतन्त्र है ? ॥९१॥ इस प्रकार कहनेवाला तू सचमुच ही अपने स्वतन्त्र स्वामीका अन्तरंग दूत है, यदि ऐसा न होता तो तू उसके हृदयगत अभिप्रायको कैसे प्रकट कर सकता था ॥९॥ चक्रवर्तीने तुझपर समस्त कार्यभार सौंपकर मेरे पास भेजा है, यद्यपि तु चतुर है तथापि इस प्रकार दूसरेका मर्मछेदन करना चतुराई नहीं है ॥९३।। अपनी जबरदस्ती दिखलाना वास्तवमें दुष्टोंका काम है तथा अपने गुणोंका वर्णन करना और दूसरोंमें दोष प्रकट करना भी दुष्टोंका ही काम है ॥९४॥ दुष्ट पुरुष, दूसरेके दोष और अपने गुणोंका स्वयं वर्णन किया करते हैं तथा अपने दोष और दूसरेके गुणोंको छिपाते रहते हैं ॥९५॥ खलता अर्थात् दुष्टता खलता अर्थात् आकाशकी बेलके समान है क्योंकि जिस प्रकार आकाशकी बेलसे किसीका सन्ताप दूर नहीं होता उसी प्रकार दुष्टतासे किसीका सन्ताप दूर नहीं होता, जिस प्रकार आकाशकी बेल सुमन अर्थात् फूलोंसे शून्य होती है उसी प्रकार दुष्टता भी सुमन अर्थात् विद्वान् पुरुषोंसे शून्य होती है और जिस प्रकार आकाशकी बेल फलरहित होती है उसी प्रकार दुष्टता भी फलरहित होती है अर्थात् उससे किसीको कुछ लाभ नहीं होता, ऐसी इस दुष्टताका केवल मूर्ख लोग ही आश्रय लेते हैं ॥९६।। जो सज्जन पुरुषोंको इष्ट नहीं है, जो सब ओरसे विरस अर्थात् नीरस अथवा विद्वेषरूपी फलोंसे व्याप्त है तथा लोगोंको सन्ताप देनेवाली है ऐसी इस खलता-दुष्टताको मैं दुःखलता अर्थात् दुःखकी बेल ही समझता हूँ ॥९७॥ यदि न्यायपूर्ण विरोध करनेवाले पुरुषके विषय
१ तत् कारणात् । २ वचः। ३ शान्तिम् । ४ परब्रह्मकरणादिप्रयोजने । ५ हृदये वर्तमानः । ६ व्यक्तं • करोषि । ७ बुद्धिम् । ८ असकृत्संपादितप्रयोजनतया । ९ नियुक्तः । १० कुसुमैः । शोभन हृदयश्च । ११ श्रयन्त्यज्ञाः ल०, द०। १२ दुर्जनत्वम् । १३ आकाशलतामिव । १४ दानसहितम् । १५ न्यायान्विते पुरुषे । १६ भेददण्डाभ्यां विकारं गच्छति सति ।