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पत्र त्रिंशत्तमं
कृतोऽभिषेो यस्यादभ्येत्य सुरसत्तमैः । यस्याचलेन्द्रकूटेषु स्थलपद्मायितं यशः ॥७६॥ पर्युपासात यं स्वन्यधिदेवते । वृषभाद्वितटे येन टङ्गोत्कीर्ण कृतं यशः ॥७७॥ घटदासीकृता लक्ष्मीः सुराः किङ्करतां गताः । यस्य स्वाधीनरत्नस्य निधयः सुवतं धनम् ॥ ८॥ स यस्य जयसैन्यानि निर्जित्य निखिला दिशः । भ्रमन्ति स्माखिलाम्भोधितटान्तवनभूमिषु ॥ ७९ ॥ त्वामायुष्मन् जगन्मान्यो मानयन् कुशलाशिषा । समादिशन्ति चक्राङ्कां ययन्नधिराजताम् ॥ ८० ॥ मदीयं राज्यमाक्रान्तनिखिलद्वीपसागरम् । राजतेऽस्मत्प्रियभ्रात्रा न बाहुबलिना विना ॥८१॥ ताः संपदस्तदैश्वर्यं ते भोगाः स परिच्छदः । ये समं बन्धुभिर्भुक्ताः संविभक्तसुखोदयैः ॥ ८२ ॥ अन्यश्च नमिताशेष नृसुरासुरखेचरम् । नाधिराज्यं विभात्यस्य प्रणामविमुखे त्वयि ॥ ८३ ॥ न दुनोति मनस्तीव्रं रिपुरप्रणतस्तथा । बन्धुरप्रणमन् गर्वाद् दुर्विदग्धो यथा प्रभुम् ॥८४॥ "तदुपेत्य प्रणामेन पूज्यतां प्रभुरशमी । प्रभुप्रणतिरंवेष्टा प्रसूतिर्ननु संपदाम् ॥ ८५ ॥ अवन्ध्यशासनस्यास्य शासनं ये विमन्वते । शासनं द्विषतां तेषां चक्रमप्रतिशासनम् ॥ ८६ ॥ प्रचण्डदण्डनिर्वात निपातपरिखण्डितान् । तदाज्ञाखण्डनव्यग्रान् पश्यैनान् मण्डलाधिपान् ||८७ ||
सेना से हराकर और जबरदस्ती उनका धन छीनकर उनपर विजय प्राप्त की है ||७५ || अच्छेअच्छे देवोंने आकर उसका अभिषेक किया है और उसका निर्मल यश बड़े-बड़े पर्वतोंके शिखरोंपर स्थलकमलोंके समान सुशोभित हो रहा है || ७६ || गंगा - सिन्धु दोनों नदियोंके देवताओंने रत्नोंके अर्धो के द्वारा उसको पूजा की है तथा वृषभाचलके तटपर उसने अपना यश टांकी से उघेरकर लिखा है ||७७ || उसने लक्ष्मीको घटदासी अर्थात् पानी भरनेवाली दासीके समान किया है, देव उसके सेवक हो रहे हैं, समस्त रत्न उसके स्वाधीन हैं और निधियाँ उसे धन प्रदान करती रहती हैं ॥७८ || और उसकी विजयी सेनाओंने समस्त दिशाओंको जीतकर सब समुद्रोंके किनारे के वनोंको भूमिमें भ्रमण किया है ॥ ७९ ॥ हे आयुष्मन् जगत् में माननीय वही महाराज भरत अपने चक्रवर्तीपनेको प्रसिद्ध करते हुए कल्याण करनेवाले आशीर्वादसे आपका सन्मान कर आज्ञा कर रहे हैं ||८०|| कि समस्त द्वीप और समुद्रों तक फैला हुआ, यह हमारा राज्य हमारे प्रिय भाई बाहुबली के बिना शोभा नहीं देता है || ८१|| सम्पत्तियाँ वही हैं, ऐश्वर्य वही है, भोग वही है और सामग्री वही है जिसे भाई लोग सुखके उदयको बाँटते हुए साथ-साथ उपभोग करें || ८२|| दूसरी एक बात यह है कि आपके प्रणाम करनेसे विमुख रहने पर जिसमें समस्त मनुष्य, देव, धरणेन्द्र और विद्याधर नमस्कार करते हैं ऐसा उनका चक्रवर्तीपना भी सुशोभित नहीं होता है || ८३ ॥ प्रणाम नहीं करनेवाला शत्रु स्वामीके मनको उतना अधिक दुःखी नहीं करता है जितना कि अपनेको झूठमूठ चतुर माननेवाला और अभिमान से प्रणाम नहीं करनेवाला भाई करता ॥ ८४ ॥ | इसलिए आप किसी अपराधकी क्षमा नहीं करनेवाले महाराज भरतके समीप जाकर प्रणामके द्वारा उनका सत्कार कीजिए क्योंकि स्वामीको प्रणाम करना अनेक सम्पदाओंको उत्पन्न करनेवाला है और यही सबको इष्ट है ||८५|| जिसकी आज्ञा कभी व्यर्थ नहीं जाती ऐसे उस भरतकी आज्ञाका जो कोई - भी उल्लंघन करते हैं उन शत्रुओंका शासन करनेवाला उसका वह चक्ररत्न है जिसपर स्वयं किसीका शासन नहीं चल सकता ॥ ८६ ॥ आप भरतकी आज्ञाका खण्डन करनेसे व्याकुल हुए इन मण्डलाधिपति राजाओंको देखिए जो भयंकर दण्डरूपी वज्रके गिरनेसे खण्ड-खण्ड
१ अपूजयताम् । २ गंगासिन्धू देव्यौ । ३ पूजयन् । ४ चक्रिणः । ५ तत्कारणात् । ६ आज्ञाम् । ७ अवज्ञां कुर्वन्ति । ८ शिक्षकम् । ९ दण्डरत्नाशनि । १० पश्यैतान् ब०, अ०, प०, ५०, स०, इ०