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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व करगिर्यग्रसंलग्नः भानुरालक्ष्यत क्षणम् । पातमीत्या करालाः ' करालम्बमिवाश्रयन् ॥१५४॥ पतन्तं वारुणी संगत् परिलुप्तविभावसुम् । नालम्बत बतास्ताविर्भानुं विभ्यदिवैनसः ॥१५५॥ गतो नु दिनमन्वेष्टुं प्रविष्टो नु रसातलम् । तिरोहितो न शृङगारस्ताक्षि भानुमान् ॥१५६॥ विक्टय्य तमो नैशं करतक्रम्य भूभृतः । दिनावसा ने पर्यास्थदहो° रविरनंशुकः ॥१५७॥ तिर्यमण्डलगत्यैव शश्वद् भानुरयं भ्रमन् । ''विप्रकर्षाज्जनैर्मूढेरग्राहीव पतन्नधः ॥१५८॥ व्यसनेऽस्मिन् दिनेशस्य शुचेय परिपीडिताः । विच्छायानि मुखान्यूहु स्तमोरुद्धा दिगगनाः॥१५९॥॥
के शिखरपर लगे हुए वनके वृक्षोंकी कोपलोंके समान कुछ-कुछ लाल रंगका दिखाई दे रहा
। उस समय वह सूर्य अस्ताचलके शिखरपर लगे हुए किरणोंसे क्षण-भरके लिए ऐसा जान पड़ता था मानो नीचे गिरनेके भयसे अपने किरणरूपी हाथोंसे किसीके हाथका सहारा ही ले रहा हो ।।१५४।। जो सूर्य वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा ( पक्षमें मदिरा ) के समागमसे पतित हो रहा है और जिसका कान्तिरूपी धन नष्ट हो गया है ऐसे सूर्यको मानो पापसे डरते हुए ही अस्ताचलने आलम्बन नहीं दिया था। भावार्थ - वारुणी शब्दके दो अर्थ होते हैं मदिर और पश्चिम दिशा। पश्चिम दिशामें पहुँचकर सूर्य प्राकृतिक रूपसे नीचेकी ओर ढलने लगता है। यहाँ कविने इसी प्राकृतिक दृश्यमें श्लेषमूलक उत्प्रेक्षा अलंकारको पुट देकर उसे और भी सुन्दर बना दिया है। वारुणी अर्थात् मदिराके समागमसे मनुष्य अपवित्र हो जाता है उसका स्पर्श करना भी पाप समझा जाने लगता है, सूर्य भी वारुणी अर्थात् पश्चिम दिशा ( पक्षमें मदिरा ) के समागमसे मानो अपवित्र हो गया था। उसका स्पर्श करनेसे कहीं मैं भी पापी न हो जाऊँ इस भयसे अस्ताचलने उसे सहारा नहीं दिया – गिरते हुएको हस्तालम्बन देकर गिरनेसे नहीं बचाया । सूर्य डूब गया ।।१५५॥ उस समय सूर्य दिखाई नहीं देता था सो ऐसा जान पड़ता था मानो बीते हुए दिनको खोजनेके लिए गया हो, अथवा पाताललोकमें घुस गया हो अथवा अस्ताचलके शिखरोंके अग्रभागसे छिप गया हो ॥१५६॥ जिस प्रकार कोई वीर पुरुष दारिद्रयरूपी अन्धकारको नष्ट कर और अपने कर अर्थात् टैक्स-द्वारा भूभृत् अर्थात् राजाओंपर आक्रमण कर दिन अर्थात् भाग्यके अन्तमें अनंशुक अर्थात् बिना वस्त्रके यों ही चला जाता है उसी प्रकार सूर्य रात्रिसम्बन्धी अन्धकारको नष्ट कर तथा कर अर्थात् किरणोंसे भूभृत् अर्थात् पर्वतोपर आक्रमण कर दिनके अन्तमें अनंशुक अर्थात् किरणोंके बिना यों ही चला गया - अस्त हो गया, यह कितने दुःखकी बात है। ॥१५७।। यह सूर्य तो मेरु पर्वतके चारों ओर गोलाकार तिरछी गतिसे निरन्तर घूमता रहता है तथापि दूर होनेसे दिखाई नहीं देता इसलिए मूर्ख पुरुषोंको नीचे गिरता हुआ-सा जान पड़ता है ॥१५८॥ सूर्यकी इस विपत्तिके समय मानो शोकसे पीड़ित हुई दिशारूपी स्त्रियाँ अन्धकारसे भर जानेके कारण कान्तिरहित मुख धारण कर रही थीं। भावार्थ - पतिको विपत्तिके समय जिस प्रकार कुलवती स्त्रियोंके मुख शोकसे कान्तिहीन हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्यको विपत्तिके समय दिशारूपी स्त्रियोंके मख शोकसे कान्तिहीन हो गये थे। अन्धकार छा जानेसे दिशाओंकी १ विस्तृताः । 'करालो दन्तुरे तुझं विशाले विकृतेऽपि च' इत्यभिधानात् । २ वरुणसंबन्धिदिक्संगात् । मद्यसंगादिति ध्वनिः । ३ कान्तिरेव धनं यस्य । पक्षे विभा च वसु च विभावसुनो, परिप्लुते विभावसुनी यस्य तम् । ४ न धरति स्म । ५ पापात् । ६ गवेषणाय । ७ निशासंबन्धि । ८ पर्वतानाम् । नूगंश्च । ९ दिवसान्ते । भाग्यावसाने ज। दिवाव - ल०, द०। १० पतितवान् । ११ कान्तिरहितः, वस्त्ररहित इति ध्वनिः । १२ मेरुप्रदक्षिणरूपतिर्यबिम्वगमनेन। १३ दूरात् । १४ स्वीकृतः । १५ विपदि ।
१६ पन्तः । १२साने न। पापात् ।। पोच' इत्यभि