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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व
१७५ क्वचिच्छुकमुखाकृष्टकणाः कणिशमञ्जरीः । शालिवप्रेषु सोऽपश्यद् विटैर्भुक्ता इव स्त्रियः ॥३१॥ सुगन्धिकलमामोदसंवादि श्वसि तानिलैः । वासयन्तीर्दिशः शालिकणिशेरवतंसिताः ॥३२॥ पीनस्तनतटोत्सगगलधर्माम्बुबिन्दुभिः । मुक्तालंकारजां लक्ष्मी घटयन्तीनिजोरसि ॥३३॥ सरजोऽजरजःकीर्णसीमन्तरुचिरैः कचैः । चूडामाबध्नतीः स्वैरग्रन्थितोत्पलदामकैः ॥३४॥ दधतीरातपक्लान्तमुखपर्यन्तसंगिनीः । लावण्यस्येव कणिकाः श्रमघर्भाम्बुविग्रुषः ॥३५॥ शुकान् शुकच्छदच्छायैरुचिराङ्गीस्तनांशुकैः । छोत्कुर्वतीः कलक्वाणं सोऽपश्यच्छालिगोपिकाः ॥३६॥ भ्रमद्यानकुटीयन्त्रचीत्कारैरिक्षवाटकान् । फूल्कुर्वत इवाद्वाझीदतिपीडाभयेन सः ॥३७॥ उपक्षेत्रं च गोधेनूमहोधोभरमन्थराः । वात्सकेनोत्सुकाः स्तन्यं क्षरतीर्निचचाय' सः ॥३८॥ इति रम्यान् पुरस्यास्य सीमान्तान् स विलोकयन् । मेने कृतार्थमात्मानं लब्धतदर्शनोत्सवम् ॥३९॥ उपशल्यभुवः कुल्याप्रणालीप्रसृतोदकाः । शालीक्षुजीरकक्षेत्रैवृतास्तस्य मनोहरन् ॥४०॥ वापीकूपत डागैश्च सारामैरम्बुजाकरैः । पुरस्यास्य बहिर्देशास्तेनादृश्यन्त हारिणः ॥४१॥
पुरगोपुरमुल्लङ्घय स निचायन् वणिकपथान् । तत्र पूगीकृतान् मेने रत्नराशीनिधीनिव ॥४२॥ हैं ऐसे कुटुम्बसहित किसानोंके द्वारा प्रशंसनीय, खेत काटनेके संघर्षके लिए बजती हुई तुरईके शब्दोंको भी वह दूत सुन रहा था ॥३०॥ कहीं धानके खेतोंमें वह दूत जिनके कुछ दाने तोताओं ने अपने मुखसे खींच लिये हैं ऐसी बालोंके समूह इस प्रकार देखता था मानो विट पुरुषोंके द्वारा भोगी हुई स्त्रियाँ ही हों ।।३१।। जो सुगन्धित धानको सुगन्धिके समान सुवासित अपनी श्वासकी वायुसे दशों दिशाओंको सुगन्धित कर रही थीं, जिन्होंने धानकी वालोंसे अपने कानोंके आभूपण बनाये थे, जो अपने वक्षःस्थलपर स्थूल स्तनतटके समीपमें गिरती हुई पसीनेकी बूंदोंसे मोतियोंके अलंकारसे उत्पन्न होनेवाली शोभाको धारण कर रही थीं, जो परागसहित कमलोंकी रजसे भरे हुए माँगसे सुन्दर तथा अच्छी तरह गुंथी हुई नीलकमलोंकी मालाओंसे सुशोभित केशोंसे चोटियाँ बाँधे हुई थीं, जो घामसे दुःखी हुए मुखपर लगी हुई सौन्दर्यके छोटेछोटे टुकड़ोंके समान पसीनेकी बूंदोंको धारण कर रही थीं, जिनके शरीर तोतेके पंखोंके समान कान्तिवाली-हरी-हरी चोलियोंसे सुशोभित हो रहे थे, और जो मनोहर शब्द करती हुई छो-छो करके तोतोंको उड़ा रही थीं ऐसी धानकी रक्षा करनेवाली स्त्रियाँ उस दूतने देखीं ॥३२-३६।। जो चलते हुए कोल्हुओंके चीत्कार शब्दोंके बहाने अत्यन्त पीड़ासे मानो रो ही रहे थे ऐसे ईखके खेत उस दूतने देखे ॥३७॥ खेतोंके समीप ही, बड़े भारी स्तनके भारसे जो धीरे-धीरे चल रही हैं, जो बछड़ोंके समूहसे उत्कण्ठित हो रही हैं और जो दूध झरा रही हैं ऐसो नवीन प्रसूता गायें भी उसने देखी ॥३८।। इस प्रकार इस नगरके मनोहर सीमाप्रदेशोंको देखता हुआ और उन्हें देखकर आनन्द प्राप्त करता हुआ वह दूत अपने आपको कृतार्थ मानने लगा ॥३९॥ जिनके चारों ओर नहरकी नालियोंसे पानी फैला हुआ है और जो धान ईख और जीरेके खेतोंसे घिरी हुई हैं ऐसी उस नगरके बाहरकी पृथिवियाँ उस दूतका मन हरण कर रही थीं ॥४०॥ बावड़ी, कुएँ, तालाब, बगीचे और कमलोंके समूहोंसे उस नगरके बाहरके प्रदेश उस दूतको बहुत ही मनोहर दिखाई दे रहे थे ॥४१।। नगरके गोपुरद्वारको १ धान्यांशाः । २ केदारेषु । ३ परिस्पधि । ४ उच्छ्वास । ५ शिखाम् । 'शिखा चुडा केशपाशः' इत्यभिधानात् । ६ इक्षुयन्त्रगृह । ७ क्षेत्रसमोपे । ८ गोनवसुतिकाः । 'धेनु: स्यान्नव प्रमूतिका' इत्यभिधानात् । ९ महापीनभारमन्दगमनाः। १० क्षीरम् । ११ ददर्श। 'चाय पूजानिगामनयोः । १२ ग्रामान्तभूमिः । 'ग्रामान्तमुपशल्यं स्याद्' इत्यभिधानात् । १३ दूतस्य । १४ वृन्दोकृतान् । 'पूगः ऋमुकवृन्दयोः' इत्यभिधानात् । पुजीकृतानित्यर्थः । पुजीकृतान् ल० । पगकृतान् अ०, प०, म०, इ० ।