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आदिपुराणम्
उचितं युग्यमारूढो वयसा नातिकर्कशः । अनुद्धतेन वेषेण प्रतस्थे स तदन्तिकम् ॥२१॥ आत्मनेव द्वितीयन स्निग्धेनानुगतो द्रुतम् । निजानुजीविलोकेन हस्तशम्बल वाहिना ॥२२॥ सोऽन्वी वक्ति चेदेवमहं ब्रूयामकत्थनः । विगृह्य यदि स ब्रूयाद् विरहं विग्रहे घटे ॥२३॥ संधि च पणबन्धं च कुर्यात् सोऽन्तरमेव नः । विक्रम्य' क्षिप्रमेष्यामि विजिगीषावसंगत ॥२४॥ गुणयन्निति संपत्तिविपत्ती स्वान्यपक्षयोः । स्वयं निगूढमन्त्रत्वादनिर्भेद्योऽन्यमन्त्रिभिः ॥२५॥ मन्त्रभेदभयाद् गृहं स्वपन्नेकः प्रयाणके । युद्धापसारभूमीश्च स पश्यन् दरमत्यगात् ॥२६॥ क्रमेण देशान् सिन्धूंश्च देशसंधींश्च सोऽतियन् । प्रापत् संख्यातरात्रैस्तत् पुरं पोदनसाह्वयम् ॥२७॥ बहिःपुरमथासाद्य रम्याः सस्यवतीर्भुवः । पक्वशालिवनोद्देशान् स पश्यन् प्राप नन्दथुम् ॥२८॥ पश्यन् स्तम्बकरिस्तम्बान प्रभूतफल शालिनः । कृतरक्षान् जनयंत्रात् स मेने रवार्थिन जनम् ॥२९॥
सकुटुम्बिनि रुहात्रैर्नृत्यद्भिरभिनन्दितान् । केदारलाव संघर्षर् र्यघोषान्न्यशामयत् ॥३०॥ दूतको बाहुबलीके समीप भेजा। भावार्थ-जिस दूतके ऊपर कार्य सिद्ध करनेका सब भार सौंप दिया जाता है वह निःसृष्टार्थे दूत कहलाता है। यह दुत स्वामीके उद्देश्यकी रक्षा करता हुआ प्रसंगानुसार कार्य करता है। चक्रवर्ती भरतने ऐसा ही दूत बाहुबलोके पास भेजा था ॥२०॥ जो उमरमें न तो बहुत छोटा था और न बहुत बड़ा ही था ऐसा वह दूत अपने योग्य रथपर सवार होकर नम्रताके वेषसे बाहुबलीके समीप चला ॥२१॥ जिसने मार्गमें काम आनेवाली भोजन आदिकी समस्त सामग्री अपने साथ ले रखी है और जो प्रेम करनेवाला है ऐसे अपने ही समान एक सेवकसे अनुगत होकर वह दूत वहाँसे शीघ्र ही चला ।।२२॥ वह दूत मार्गमें विचार करता जाता था कि यदि वह अनुकूल बोलेगा तो मैं भी अपनी प्रशंसा किये बिना ही अनुकूल बोलूंगा और यदि वह विरुद्ध होकर युद्धकी बात करेगा तो मैं युद्ध नहीं होनेके लिए उद्योग करूंगा ॥२३॥ यदि वह सन्धि अथवा पणबन्ध ( कुछ भेंट देना आदि ) करना चाहेगा तो मेरा यह अन्तरंग ही है अर्थात् मैं भी यही चाहता हूँ, इसके सिवाय यदि वह चक्रवर्तीको जोतनेको इच्छा करेगा तो मैं भी कुछ पराक्रम दिखाकर शीघ्र वापस लौट आऊँगा ॥२४॥ इस प्रकार जो अपने पक्षको सम्पत्ति और दूसरेके पक्षको विपत्तिका विचार करता जाता था, जो अपने मन्त्रको छिपाकर रखनेसे दूसरे मन्त्रियोंके द्वारा कभी फोड़ा नहीं जा सकता था और जो मन्त्रभेदके डरसे पड़ावपर किसी एकान्त स्थानमें गुप्त रीतिसे शयन करता था ऐसा वह दूत युद्ध करने तथा उससे निकलनेकी भूमियोंको देखता हुआ बहुत दूर निकल गया ॥२५-२६॥ क्रम-क्रमसे अनेक देश, नदो और देशोंकी सीमाओंका उल्लंघन करता हुआ वह दूत बाहुबलीके पोदनपुर नामक नगरमें जा पहुँचा ॥२७॥ नगरके बाहर धानोंसे युक्त मनोहर पृथिवीको पाकर और पके हुए चावलोंके खेतोंको देखता हुआ वह दूत बहुत ही आनन्दको प्राप्त हुआ था ॥२८॥ जो बहुत-से फलोंसे शोभायमान हैं और किसानोंके द्वारा बड़े यत्नसे जिनकी रक्षा की जा रही है ऐसे धानके गुच्छोंको देखते हुए दूतने मनुष्योंको बड़ा स्वार्थी समझा था ॥२९॥ जो खेतोंको देखकर आनन्दसे नाच रहे हैं और खेत काटनेके लिए जिन्होंने हँसिया ऊँचे उठा रखे १ वाहनम् । 'सर्वं स्याद् वाहनं धानं युग्यं पत्रं च धोरणम्' इत्यभिधानात् । २ अनुचरजनेन । ३ पाथेय । ४ अनुकूलम् । ५ अनुकूलवृत्त्या। ६ अश्लाघमानः। - मकच्छनः ल०। ७ कलहं कृत्वा । ८ नाशम् । ९ करोमि । १० निष्कग्रन्थिम् । प्राभूतमित्यर्थः । ११ विक्रमं कृत्वा । १२ आगच्छामि। १३ संधिं न गते सति । १४ शयानः । १५ युद्धापसारणयोग्यभूमिः । १६ -मभ्यगात् ल०, १०, अ०, स०। १७ नदीः । १८ देशसोम्नः । १९ अतीत्य गच्छन् । २० आनन्दम । २१ ब्रोहिगुच्छान् । 'धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः स्तम्बो गुच्छस्तृणादितः ।' इत्यभिधानात् । २२ बहल । २३ निजप्रयोजनवन्तम् । २४ कृषीवलैः । २५ उद्गतलवित्रैः । २६ छेदन । २७ मर्द । २८ अशृणोत् ।