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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व अथ चक्रधरस्यासीत् किंचित् चिन्ताकुलं मनः । दो बलिन्यनुनेतव्ये यूनि दोर्दर्पशालिनि ॥१॥ अहो भ्रातृगणोऽस्माकं नाभिनन्दति नन्दथुम् । सनाभित्वादवध्यत्वं मन्यमानोऽयमात्मनः ॥२॥ अवध्यं शतमित्यास्था नूनं भ्रातृशतस्य मे । यतः प्रणामविमुखं गतवन्नः प्रतीपताम् ॥३॥ न तथाऽस्मादृशां खेदो भवत्यप्रणते द्विषि । दुर्गर्विते यथा ज्ञातिवर्गेऽन्तर्गेहवर्तिनि ॥४॥ मुखैरनिष्टवाग्वतिदीपितैरतिधूमिताः । दहन्त्यलातवच्च स्वाः"प्रातिकूल्यानिलेरिताः ॥५॥ प्रतीपवृत्तयः काम सन्तु वान्ये कुमारकाः। बाल्यात् प्रभृति येऽस्माभिः स्वातन्त्र्येणोपलालिताः ॥६॥ युवा तु दोर्बली प्राज्ञः क्रमज्ञः प्रश्रयी पटुः । कथं नाम गतोऽस्मासु विक्रिया सुजनोऽपि सन् ॥७॥ कथं च सोऽनुनेतव्यो"बली मानधनोऽधुना । जयाङ्गं यस्य दोर्दपः श्लाध्यते रणमूर्द्धनि ॥८॥ सोऽयं भुजबली बाहुबलशाली मदोद्धतः । महानिव गजो माद्यन् दुर्ग्रहोऽनुनयविना ॥९॥ न स सामान्यसंदेशैः प्रवीभवति दुर्मदी । ग्रहो दुष्ट इवाविष्टो मन्त्रविद्याचर्णविना ॥१०॥
अथानन्तर भुजाओंके गर्वसे शोभायमान युवा बाहुबलीको वश करनेके लिए चक्रवर्तीका मन कुछ चिन्तासे आकुल हुआ ॥१॥ वह विचारने लगा कि यह हमारे भाइयोंका समूह एक ही कुलमें उत्पन्न होनेसे अपने-आपको अवध्य मानता हुआ हमारे आनन्दका अभिनन्दन नहीं करता है अर्थात् हमारे आनन्द-वैभवसे ईर्ष्या रखता है ॥२॥ हमारे भाइयोंके समूहका यह विश्वास है कि हम सौ भाई अवध्य हैं इसीलिए ये प्रणाम करनेसे विमुख होकर मेरे शत्रु हो रहे हैं ॥३॥ किसी शत्रुके प्रणाम न करनेपर मुझे वैसा खेद नहीं होता जैसा कि घरके भीतर रहनेवाले मिथ्याभिमानी भाइयोंके प्रणाम नहीं करनेसे हो रहा है ।।४।। अनिष्ट वचनरूपी अग्निसे उद्दीपित हुए मुखोंसे जो अत्यन्त धूमसहित हो रहे हैं और जो प्रतिकूलतारूपी वायुसे प्रेरित हो रहे हैं ऐसे ये मेरे निजी भाई अलातचक्रकी तरह मुझे जला रहे हैं ॥५॥ जिन्हें हमने बालकपनसे ही स्वतन्त्रतापूर्वक खिला-पिलाकर बड़ा किया है ऐसे अन्य कुमार यदि मेरे विरुद्ध आचरण करनेवाले हों तो खुशीसे हों परन्तु बाहुबली तरुण, बुद्धिमान्, परिपाटीको जाननेवाला, विनयी, चतुर और सज्जन होकर भी मेरे विषयमें विकारको कैसे प्राप्त हो गया ? ॥६-७॥ जो अतिशय बलवान् है, मानरूपी धनसे युक्त है, और विजयका अंग स्वरूप जिसकी भुजाओंका बल युद्धके अग्रभागमें बड़ा प्रशंसनीय गिना जाता है ऐसे इस बाहुबलीको इस समय किस प्रकार अपने अनुकूल बनाना चाहिए ॥८॥ जो भुजाओंके बलसे शोभायमान है और अभिमानरूपी मदसे उद्धत हो रहा है ऐसा यह बाहुबली किसी मदोन्मत्त बड़े हाथीके समान अनुनय अर्थात शान्तिसचक कोमल वचनोंके बिना वश नहीं हो सकता ॥९॥ यह अहंकारी बाहुबली सामान्य सन्देशोंसे वश नहीं हो सकता क्योंकि शरीरमें घुसा हुआ दुष्ट पिशाच
१ बाहुबलिकुमारे । २ वशीकर्तुं योग्ये सति । ३ नाभिवर्द्धयति । ४ आनन्दम् । ५ भ्रातृगणः । ६ बहुजन एकपुरुषेणावध्य इति बुद्धया। ७ भ्रातृगणस्य प०, ल०, द०। ८ यस्मात् कारणात् । ९ प्राप्तम् । १० प्रतिकूलत्वम् । ११ बान्धवाः । १२ प्रतिकूलवर्तनाः । १३ विनयवान् । १४ विकारम् । १५ स्वीकार्यः । १६ प्रवेशितः । १७ प्रतीतः । समरित्यर्थः ।