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पञ्चत्रिंशत्तमं पर्व शेषक्षत्रिययूनां च तस्य चास्यन्तरं महत् । मृगसामान्य मानायैर्धतु किं शक्यते हरिः ॥११॥ सोऽभेद्यो नीतिचुञ्चत्वाद् दण्डसाध्यो न विक्री । नैष सामप्रयोगस्य विषयो विकृताशयः॥१२॥ ज्वलत्येव स तेजस्वी स्नेहेनोपकृतोऽपि सन् । घृताहुतिप्रसेकेन यथेद्वाचिमखानिलः ॥१३॥ स्वभावपरुषे चास्मिन् प्रयुक्तं साम नार्थकृत् । वपुषि द्विरदस्येव योजितं त्वच्यमौषधम् ॥१४॥ प्रायो व्याख्यात एवास्य भावः शेषैः कुमारकैः । मदाज्ञाविमुखैस्त्यक्तराज्यभोगैर्वनोन्मुखैः ॥१५॥ भूयोऽप्यनुनयैरस्य परीक्षिप्यामहे मतम् । तथाप्यप्रणते तस्मिन् विधेयं चिन्त्यमुत्तरम् ॥१६॥' ज्ञातिव्याजनिगूढान्तविक्रियो निष्प्रतिक्रियः । सोऽन्तर्ग्रहोत्थितो वह्निरिवाशेषं दहेत् कुलम् ॥१७॥ अन्तःप्रकृतिजः कोपो विघाताय प्रभोर्मतः । तरुशाखाग्रसंघदृजन्मा वह्निर्यथा गिरेः ॥१८॥ तदाशु प्रतिकर्तव्यं स बली वक्रतां श्रितः । क्रूर ग्रह इवामुग्मिन् प्रशान्ते शान्तिरेव नः ॥१९॥
इति निश्चित्य कार्यज्ञं दृतं मन्त्रविशारदम् । तत्प्रान्तं प्राहिणोच्चक्री निसृष्टार्थतयाऽन्वितम् ॥२०॥ मन्त्रविद्यामें चतुर पुरुषोंके बिना वश नहीं हो सकता ॥१०॥ शेष क्षत्रिय युवाओंमें और बाहुबलीमें बड़ा भारी अन्तर है, साधारण हरिण यदि पाशसे पकड़ लिया जाता है तो क्या उससे सिंह भी पकड़ा जा सकता है ? अर्थात् नहीं। भावार्थ-हरिण और सिंहमें जितना अन्तर है उतना ही अन्तर अन्य कुमारों तथा बाहुबलीमें है ।।११॥ वह नीतिमें चतुर होनेसे अभेद्य है, अर्थात् फोड़ा नहीं जा सकता, पराक्रमी है इसलिए युद्ध में भी वश नहीं किया जा सकता और उसका आशय अत्यन्त विकारयुक्त हो रहा है इसलिए उसके साथ शान्तिका भी प्रयोग नहीं किया जा सकता। भावार्थ-उसके साथ भेद, दण्ड और साम तीनों ही उपायोंसे काम लेना व्यर्थ है ।।१२।। जिस प्रकार यज्ञकी अग्नि घीकी आहुति पड़नेसे और भी अधिक प्रज्वलित हो उठती है उसी प्रकार वह तेजस्वी बाहुबली स्नेह अर्थात् प्रेमसे उपकृत होकर और भी अधिक प्रज्वलित हो रहा है - क्रोधित हो रहा है ।।१३।। जिस प्रकार हाथीके शरीरपर लगायी हुई चमडाको कोमल करनेवाली ओषधि कुछ काम नहीं करती उसी प्रकार स्वभावसे ही कठोर रहनेवाले इस बाहुबलीके विषयमें साम उपायका प्रयोग करना भी कुछ काम नहीं देगा ॥१४॥ जो मेरी आज्ञासे विमुख हैं, जिन्होंने राज्यभोग छोड़ दिये हैं और जो वनमें जानेके लिए उन्मुख हैं ऐसे बाकी समस्त राजकुमारोंने इसका अभिप्राय प्रायः प्रकट ही कर दिया है ॥१५॥ यद्यपि यह सब है तथापि फिर भी कोमल वचनोंके द्वारा उसकी परीक्षा करेंगे। यदि ऐसा करनेपर भी नम्रीभत नहीं हुआ तो फिर आगे क्या करना चाहिए इसका विचार करना चाहिए ॥१६॥ भाईपनेके कपटसे जिसके अन्तरंगमें विकार छिपा हुआ है और जिसका कोई प्रतिकार नहीं है ऐसा यह बाहुबली घरके भीतर उठी हुई अग्निके समान समस्त कुलको भस्म कर देगा ॥१७।। जिस प्रकार वृक्षोंकी शाखाओंके अग्रभागकी रगड़से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वतका विघात करनेवाली होती है उसी प्रकार भाई आदि अन्तरंग प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ प्रकोप राजाका विघात करनेवाला होता है ॥१८॥ यह बलवान् बाहुबली इस समय प्रतिकूलताको प्राप्त हो रहा है इसलिए इसका शीघ्र ही प्रतिकार करना चाहिए क्योंकि क्रूर ग्रहके समान इसके शान्त हो जानेपर ही मुझे शान्ति हो सकती है ॥१९॥ ऐसा निश्चय कर चक्रवर्तीने कार्यको जाननेवाले, मन्त्र करनेमें चतुर तथा निःसृष्टार्थतासे सहित १ भेदः । 'अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तद्धिभेदतादर्थ्य' इत्यभिधानात् । २ सामान्यं कृत्वा। ३ जालैः । 'आनायं पुंसि जालं स्यात्' इत्यभिधानात् । ४ यज्ञाग्निः । ५ कार्यकारी न। ६ त्वचे हितम् । ७ मम शासनम् । ८ वनाभिमुखैः । ९ अभिप्रायः । १० अन्तगूढ़विकारः। ११ गृहं गोत्रं च । १२ स्ववर्ग जात । १३ असकृत् संपादितप्रयोजनतया ।