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चतुखिंशत्तमं
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स्तुतिं निन्दां सुखं दुःखं तथा मानं' विमाननाम् । सममावेन तेऽपश्यन् सर्वत्र समदर्शिनः ॥२०४॥ वाचंयमत्वमास्थाय चरन्तो गोचरार्थिनः । निर्यान्ति स्माध्यलाभेन नाभञ्जन् मौनसंगरम् ॥२०५॥ महोपवासम्लानाङ्गा यतन्ते स्म तनुस्थितौ । तत्राप्यशुद्धमाहारं 'नैषिषुर्मनसाऽप्यमी ॥ २०६ ॥ गोचराग्रगता ँ योग्यं भुक्त्वान्नमविलम्बितम् । प्रत्याख्याय पुनर्वीरा निर्ययुस्ते तपोवनम् ॥२०७॥ तपस्तापतन्भूततनवोऽपि मुनीश्वराः । अनुबद्धात्तपोयोगान्न 'चेलुईढ संगराः ॥ २०८ ॥ तीव्रं तपस्यतां” तेषां गात्रेषु श्लथताऽभवत् । प्रतिज्ञा या तु सद्ध्यानसिद्धावशिथिलैव सा ॥२०९॥ नाभूत्परिषतैर्भङ्गस्तेषां चिरमुपोषुषाम् । गताः परिषहा एव भङ्गं तान् जेतुमक्षमाः ॥ २१० ॥ तपस्तनूनपात्तापाद" भूत्तेषां पराद्युतिः । निष्टप्तस्य सुवर्णस्य दीप्तिर्नन्वतिरेकिणी ४ ॥२११॥ तपोऽग्नितप्तदीप्ताङ्गास्तेऽन्तः शुद्धिं परां दधुः । तप्तायां तनुमूषायां शुद्धयत्यात्मा हि हेमवत् ॥ २१२॥ वगस्थिमात्रदेहास्ते ध्यानशुद्धिमधुस्तराम् । सर्वं हि परिकर्मेदं बाह्यमध्यात्मशुद्धये ॥ २१३ ॥ योगजाः सिद्धयस्तेषामणिमादिगुणर्द्धयः । प्रादुरासन्विशुद्धं हि तपः सूते महत्फलम् ॥ २१४॥
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रूपी अधिक लाभ समझते हुए विषाद नहीं करते थे || २०३ || सब पदार्थो में समान दृष्टि रखनेवाले वे मुनि स्तुति, निन्दा, सुख, दुःख तथा मान-अपमान सभीको समान रूपसे देखते थे || २०४ ।। वे मुनि मौन धारण करके ईर्यासमिति से गमन करते हुए आहारके लिए जाते थे और आहार न मिलने पर भी मौनव्रतकी प्रतिज्ञा भंग नहीं करते थे || २०५ || अनेक महोपवास करनेसे जिनका शरीर म्लान हो गया है ऐसे वे मुनिराज केवल शरीरकी स्थिति के लिए ही प्रयत्न करते थे परन्तु अशुद्ध आहारकी मनसे भी कभी इच्छा नहीं करते थे || २०६ ।। गोचरीवृत्तिके धारण करनेवालोंमें मुख्य वे धीर-वीर मुनिराज शीघ्र ही योग्य अन्नका भोजन कर तथा आगेके लिए प्रत्याख्यान कर तपोवन के लिए चले जाते थे || २०७|| यद्यपिं तपश्चरणके सन्तापसे उनका शरीर कृश हो गया था तथापि दृढ़प्रतिज्ञाको धारण करनेवाले वे मुनिराज प्रारम्भ किये हुए तपसे विराम नहीं लेते थे || २०८ || तीव्र तपस्या करनेवाले उन मुनियोंके शरीरमें यद्यपि शिथिलता आ गयी थी तथापि समीचीन ध्यानकी सिद्धि के लिए जो उनकी प्रतिज्ञा थी वह शिथिल नहीं हुई थी ॥ २०९ ॥ | चिरकाल तक उपवास करनेवाले उन मुनियोंका परीषहोंके द्वारा पराजय नहीं हो सका था बल्कि परीषह ही उन्हें जीतनेके लिए असमर्थ होकर स्वयं पराजयको प्राप्त हो गये थे ।॥ २१० ॥ तपरूपी अग्निके सन्तापसे उनके शरीरकी कान्ति बहुत ही उत्कृष्ट हो गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि तपे हुए सुवर्णकी दीप्ति बढ़ ही जाती है ॥२११॥ तपश्चरणरूपी अग्निसे तप्त होकर जिनके शरीर अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे वे मुनिराज अन्तरंग की परम विशुद्धिको धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि शरीररूपी मूसा (साँचा) तपाये जानेपर आत्मा सुवर्णके समान शुद्ध हो ही जाती है ॥ २१२॥ यद्यपि उनके शरीरमें केवल चमड़ा और हड्डी ही रह गयी थी तथापि वे ध्यानकी उत्कृष्ट विशुद्धता धारण कर रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि उपवास आदि समस्त बाह्य साधन केवल आत्मशुद्धिके लिए ही हैं ।।२१३।। योगके प्रभावसे उत्पन्न होनेवाली अणिमा महिमा आदि ऋद्धियाँ उन मुनियोंके प्रकट हो गयी थीं सो ठीक ही है क्योंकि विशुद्ध तप बहुत बड़े-बड़े फल उत्पन्न करता है ॥२१४ ॥
१ पूजाम् । २ अवज्ञाम् । ३ मौनित्वम् । ४ गोचार । ५ मौनप्रतिज्ञाम् । ६ इच्छां न चक्रुः । ७ गोचारभिक्षायां मुरूपतां गताः । ८ शीघ्रम् । ९ प्रत्याख्यानं गृहीत्वा । १० - - नारेमु,अ०, स०, इ० प०, द० । ११ दृढप्रतिज्ञाः । १२ तपः कुर्वताम् । १३ तपोऽग्निजनित संतापात् । १४ न व्यतिरेकिणी ल०, द० । १५ अनशनादि ।
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