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आदिपुराणम् ततोऽमी श्रुतनिःशेषश्रुतार्थाः श्रुतचक्षुषः । श्रुतार्थभावनोत्कर्षाद दयुः शुद्धिं तपोधिधौ ॥१४८॥ वाग्देव्या सममालापो मया मौनमनारतम् । इतीर्घ्यतीव संतापं व्यधत्तेषु तपःक्रिया ॥१४॥ तनुतापमसह्यं ते सहमाना मनस्विनः । बाह्यमाध्यात्मिकं चोग्रं तपः सुचिरमाचरन् ॥१५०॥ ग्रीप्मेऽर्ककरसंतापं सहमानाः सुदुःसहम् । ते भेजुरातपस्थानमारूडगिरिमस्तकाः ॥१५॥ शिलातलेषु तप्तेषु निवेशितपदद्वयाः । प्रलम्बितभुजास्तस्थुर्गिर्यग्रग्रावगोचरे ॥१५२॥ तप्तपांसुचिता भूमिवदग्धा वनस्थली । याता जलाशयाः शोषं दिशो धूमान्धकारिताः ॥१५३॥ इत्यत्युग्रतरे ग्रीप्मे संप्लुष्ट गिरिकानने । तस्थुरातपयोगेन ते सोढजरठातपा. ॥१५४॥ मेघान्धकारिता शेषदिक्चक्रे जलदागमे । योगिनो गमयन्ति स्म तरुमूलेषु शर्वरीः ॥१५५॥ मुसलस्थूलधाराभिर्वर्पत्सु जलवाहिएं । निशामनैषुर व्यथ्या वार्षिकी ते महर्षयः ॥१५६॥ ध्यानगर्भ गृहा तास्था धृतिप्रावारसंवृताः । सहन्ते स्म महासत्त्वास्ते घनाघनदुर्दिनम् ॥१५७॥ ते हिमानी परिक्लिष्टां तनुयष्टिं हिमागमे । दधुरभ्यवकाशेषु शयाना मौनमास्थिताः ॥१५८॥ "अनन्नमषिता" एव नग्नास्तेऽननिसेविनः। धृतिसंवर्मितैरंगैः सेहिरे हिममारुतान् ॥१५॥
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किया था ॥१४७॥ तदनन्तर जिन्होंने समस्त श्रुतके अर्थोंका श्रवण किया है और श्रुतज्ञान ही जिनके नेत्र हैं ऐसे वे मुनि श्रुतज्ञानकी भावनाके उत्कर्षसे तपश्चरणमें विशुद्धता धारण करने लगे ॥१४८॥ ये लोग सरस्वती देवीके साथ तो बातचीत करते हैं और मेरे साथ निरन्तर मौन धारण करते हैं इस प्रकार ईर्ष्या करती हुईके समान तपश्चरणकी क्रिया उन्हें बहुत सन्ताप देती थी ॥१४९।। असह्य कायक्लेश सहन करते हुए वे तेजस्वी मुनि अतिशय कठिन अन्तरंग और बाह्य दोनों प्रकारका तप चिरकाल तक करते रहे ॥१५०।। ग्रीष्मऋतुमें पर्वतोंके शिखरपर आरूढ़ होकर अत्यन्त असह्य सूर्यकी किरणोंके संतापको सहन करते हुए वे आतापन योगको प्राप्त हुए थे अर्थात् धूपमें बैठकर तपस्या करते थे ॥१५१॥ पर्वतोंके अग्रभागकी चट्टानोंकी तपी हुई शिलाओंपर दोनों पैर रखकर तथा दोनों भुजाएँ लटका कर खड़े होते थे ॥१५२।। जिस ग्रोष्मऋतुमें पृथिवी तपी हुई धूलिसे व्याप्त हो रही है, वनके सब प्रदेश दावानलसे जल गये हैं, तालाब सूख गये हैं और दिशाएँ धूएँसे अन्धकारपूर्ण हो रही हैं इस प्रकारके अत्यन्त कठिन और जिसमें पर्वतोंके वन जल गये हैं ऐसी ग्रीष्मऋतुमें तीव्र सन्ताप सहन करते हुए वे मुनिराज आतापन योग धारण कर खड़े होते थे ॥१५३-१५४॥ जिसमें समस्त दिशाओंका समूह बादलोंके छा जानेसे अन्धकारयुक्त हो गया है ऐसी वर्षाऋतुमें वे योगी वृक्षोंके नीचे ही अपनी रात्रियाँ बिता देते थे ॥१५५॥ जब बादल मूसलके समान मोटी-मोटी धाराओंसे पानी बरसाते थे तब वे महर्षि वर्षाऋतुकी उन रात्रियोंको निश्चल होकर व्यतीत करते थे ।।१५६।। ध्यानरूपी गर्भगृहके भीतर स्थित और धैर्यरूपी ओढ़नीको ओढ़े हुए वे महाबलवान् मुनि बादलोंसे ढके हुए दुदिनोंको सहन करते थे ॥१५७।। शीतऋतुके दिनोंमें मौन धारण कर खुले आकाशमें शयन करते हुए वे मुनि बहुत भारी बर्फसे अत्यन्त दुःखी हुई अपने शरीरको लकड़ीके समान निश्चल धारण करते थे ॥१५८॥ वे मुनि नग्न होकर भी कभी अग्निसेवन नहीं करते थे, वस्त्रोंसे सहित हुएके समान सदा निर्द्वन्द्व रहते थे
१ पर्वतशिखरपाषाणप्रदेशे। २ संदग्ध । ३ प्रवृद्धातपाः । ४ मेघेषु। ५ नयन्ति स्म । ६ निश्चला निर्भया इत्यर्थः । ७ वर्षाकालसंबन्धिनीम् । ८ वासगृहम् । ९ धैर्य कम्बलपरिवेष्टिताः । १० हिमसंहतिः । ११ -रभाव - प०, ल० । १२ तरुलतागुल्मगुहादिरहितप्रबलवायुसहितप्रदेशेषु । १३ अनग्नं यथा भवति तथा सावरणमिवेत्यर्थः । १४ स्थिताः । १५ धैर्यकवचितैः ।