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आदिपुराणम्
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ऐसा केवल कहते ही हैं
गुरुप्रसाद इत्युच्चैर्जनो वक्त्येष केवलम् । वयं तु तदसाभिज्ञास्त्वत्प्रसादार्जितश्रियः ॥ १०१ ॥ स्वणामानुरक्तानां त्वत्प्रसादाभिकाङ्क्षिणाम् । स्वद्वचः किंकराणां नो यद्वा तद्वाऽस्तु नापरम् ॥ १०२ ॥ इति स्थिते प्रणामार्थं भरतोऽस्मादुपति' । तन्नात्र कारणं विधः किं मदः किन्तु मत्सरः ॥ १०३ ॥ युष्मत्प्रणमनाभ्यासरख दुर्ललितं शिरः नाम्यप्रणमने देव पूर्ति बध्नाति जातु नः ॥ १०७ ॥ किमम्भोजरजःपुञ्जपिञ्जरं वारि मानसे । निषेव्य राजहंसोऽयं रमतेऽन्यसरोजले ॥१०५॥ किमप्सरः शिरोजान्त सुमन लालितः । तुम्बीयनान् मभ्येति प्राणान्तेऽपि मधुव्रतः ॥ १०६ ॥ मुक्ताफलाच्छमापा' गगनाम्बुनवाम्बुदात् । शुष्यव्सरोऽम्बु किं वाच्छेदुदन्यन्नपि चातकः ॥ १०७ ॥ इति युष्मत्पदाब्जन्म' 'रजोरञ्जितमस्तकाः । प्रणन्तुमसदाप्ता' 'नामिहामुत्र च नेश्महे ॥१०८॥ परप्रणामविमुख मय संगविवर्जिताम् । वीरदीक्षां वयं धर्तु भवत्पार्श्वमुपागताः ॥ १०९ ॥ तदेव कथयास्माकं हितं पथ्यं च वर्त्म यत् । येनेहामुत्र च स्याम त्वद्भक्तिदृढवासनाः ॥ ११० ॥ परप्रणामसं जातमानममयातिगाम् पदवीं तावकी देव भवेमहि" भवे भवे ॥११३॥ मानखण्डनसंभूतपरिभूति मयातिगाः । योगिनः सुखमेधन्ते वनेषु हरिभिः समम् ॥ ११२ ॥ करना चाहते ।। १०० ।। इस संसार में लोग यह 'पिताजीका प्रसाद है' परन्तु आपके प्रसादसे जिन्हें उत्तम सम्पत्ति प्राप्त हुई है ऐसे हम लोग इस वाक्यके रसका अनुभव ही कर चुके हैं ॥ १०१ ॥ | आपको प्रणाम करनेमें तत्पर, आपकी प्रसन्नताको चाहने वाले और आपके वचनोंके किंकर हम लोगोंका चाहे जो हो परन्तु हम लोग और किसीकी उपासना नहीं करना चाहते हैं ||१०२ || ऐसा होनेपर भी भरत हम लोगोंको प्रणाम करनेके लिए बुलाता है सो इस विषय में उसका मद कारण है अथवा मात्सर्य यह हम लोग कुछ नहीं जानते ।। १०३।। हे देव, जो आपको प्रणाम करनेके अभ्यासके रससे मस्त हो रहा है ऐसा यह हमारा शिर किसी अन्यको प्रणाम करनेमें सन्तोष प्राप्त नहीं कर रहा है ॥ १०४॥ क्या यह राजहंस मानसरोवरमें कमलोंकी परागकी समूहसे पीले हुए जलकी सेवा कर किसी अन्य तालाब के जलकी सेवा करता है ? अर्थात् नहीं करता है ? ॥ १०५ ॥ क्या अप्सराओंके केशों में लगे हु फूलों की सुगन्धसे सन्तुष्ट हुआ भ्रमर प्राण जानेपर भी बीके वनमें जाता है अर्थात् नहीं जाता है ।। १०६ ।। अथवा जो चातक नवीन मेघसे गिरते हुए मोतोके समान स्वच्छ आकाशगत जलको पी चुका है क्या वह प्यासा होकर भी सूखते हुए सरोवर के जलको पीना चाहेगा ? • अर्थात् नहीं ॥ १०७ ॥ इस प्रकार आपके चरणकमलोंकी परागसे जिनके मस्तक रंग रहे हैं। ऐसे हम लोग इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें आप्तभिन्न देव और मनुष्यों को प्रणाम करने के लिए समर्थ नहीं हैं || १०८ || जिसमें किसी अन्यको प्रणाम नहीं करना पड़ता, और जो भयके सम्बन्धसे रहित है ऐसी वीरदीक्षाको धारण करनेके लिए हम लोग आपके समीप आये हुए हैं ।। १०९ । । इसलिए हे देव, जो मार्ग हित करनेवाला और सुख पहुँचाने वाला हो वह हम लोगों को कहिए जिससे इस लोक तथा परलोक दोनों ही लोकोंमें हम लोगोंकी वासना आपकी भक्ति में दृढ़ हो जावे ॥११०॥ हे देव, जो दूसरोंको प्रणाम करनेसे उत्पन्न हुए मानभंग भयसे दूर रहती है ऐसी आपकी पदवीको हम लोग भवभव में प्राप्त होते रहें ।। १११ || मानभंगसे उत्पन्न हुए तिरस्कारके भयसे दूर रहनेवाले योगी लोग वनों
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गुरुप्रसादामध्ये २ प्रसारोजित द० ० ३ यत्किचिद्भवति तदस्तु । ४ आह्वातुमिच्छति ५ गवितम् ६ वस्त्रो 'केश मध्य पुष्पगन्धलालितः । ७ अलाबुवनमध्यम् । ८ अभिगच्छति । ९-मापीय द०, ल० । आपाय- पीत्वा । १० पिपासन्नपि । ११ पदकमल । १२ नमस्कर्तुम् । १३ अनाप्तानाम् । १४ समर्था न भवामः | १५ भवाम । लोट् । १६ अतिक्रान्ताम् । १७ तव संबन्धिनीम् । १८ प्राप्तुमः । भू प्राप्तावात्मनेपदम् । १९ परिभव ।