________________
८०
आदिपुराणम्
स्वयंस्फुटं प्रकटकाला स्वं चान्तर्गतरागमायु कथ
सर्वस्वं समर्पयपनयनन्तणं दक्षिणो वारां राशिरमात्यवहि भुमी निपजमाराधयन् ॥ १६८ ॥ आस्थाने जयदुदुभीननु नदन् ' प्राभातिके मङ्गले गम्भीरवर्तिर्जयनिमिवधारयन् । सुन्यकं स जलाशयोऽप्यजल धीरांपतिः श्रीपतिं निर्ऋत्यस्थितिरन्वियाय सुचिरं शक्रो यथाद्यं जिनम् इत्यायें भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिपष्टिक्षण महापुराण संप्रहे दक्षिणा द्वार विजयवर्णनं नामैकोनत्रिंशं पर्व ॥ २६॥
भरतने वैजयन्त नामक समुद्रके द्वारसे वापस लौटकर अनेक प्रकारके तोरणोंसे सुशोभित किये गये अपने शिबिर में प्रवेश किया || १६७ ।। उस समय वह दक्षिण दिशाका लवणसमुद्र ठीक मन्त्रीकी तरह छलरहित हो भरतकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार मन्त्री अपने स्वच्छ हृदयको प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी मोतियोंके छलसे अपने स्वच्छ हृदय (मध्यभाग) को प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मन्त्री अपने अन्तरंगका अनुराग (प्रेम) प्रकट करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उत्पन्न होते हुए मूंगाओंके अंकुरोंसे अपने अन्तरंगका अनुराग ( लाल वर्ण ) प्रकट कर रहा था, जिस प्रकार मन्त्री अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है उसी प्रकार समुद्र भी अपना सर्वस्व (जल) समर्पण कर रहा था, जिस प्रकार मन्त्री अपना गुप्त धन उनके समीप रखता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपना गुप्त धन ( मणि आदि ) उनके समीप रख रहा था, जिस प्रकार मन्त्री दक्षिण ( उदार सरल ) होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी दक्षिण ( दक्षिणदिशावर्ती ) था ।। १६८ ।। अथवा जिस प्रकार इन्द्र दास होकर अनन्त चतुष्ट्यरूप लक्ष्मी के स्वामी प्रथम जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेवकी सेवा करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी दास होकर राज्यलक्ष्मीके अधिपति भरत चक्रधरकी सेवा कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र आस्थान अर्थात् समवसरण सभामें जाकर विजय दुन्दुभि बजाता था उसी प्रकार वह समुद्र भी भरतके आस्थान अर्थात् सभामण्डपके समीप अपनी गर्जनासे विजय-दुन्दुभि बजा रहा था, जिस प्रकार इन्द्र प्रातः कालके समय पढ़े जानेवाले मंगल पाठके लिए जय जय शब्दका उच्चारण करता था उसी प्रकार वह समुद्र भी प्रातः कालके समय पढ़े जानेवाले भरतके मंगल-पाठके लिए अपने गम्भीर शब्दोंसे जय जय शब्दका स्पष्ट उच्चारण कर रहा था, जिस प्रकार इन्द्र जलाशय ( जडाशय ) अर्थात् केवलज्ञानकी अपेक्षा अल्पज्ञानी होकर भी अपने ज्ञानकी अपेक्षा अजलधी ( अजड़धी ) अर्थात् विद्वान् ( अजडा धीर्यस्य सः ) अथवा अजड ( ज्ञानपूर्ण परमात्मा ) का ध्यान करनेवाला ( अजडं ध्यायतीत्यजडधी: ) था उसी प्रकार वह समुद्र भी जलाशय अर्थात् जलयुक्त होकर भी अजलधी अर्थात् जल प्राप्त करनेकी इच्छासे ( नास्ति जले धीर्यस्य सः ) रहित था, इस प्रकार वह समुद्र चिरकाल तक भरतेश्वरकी सेवा करता रहा ||१६९ ||
इस प्रकार आर्य नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिपष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवाद में दक्षिण समुद्रके द्वारके विजयका वर्णन करनेवाला उनतीस पर्व समाप्त हुआ।
१ प्रापयन् । २ अन्तर्जलम् । ३ समवसरणे । ४ सदृशं ध्वनन् । ५ पटुबुद्धिः । ६ भृत्यवृत्तिः ।