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त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व जय निर्मद निर्माय जय निहि निर्मम । जय निर्मल निर्द्वन्द्व जय निष्कल' पुष्कल ॥१७३॥ जय प्रबुद्ध सन्मार्ग जय दुर्मार्गरोधन । जय कर्मारिमर्माविद्ध मचक्र जयोद्धर ॥१४॥ जयाध्वरपते यज्वन् जय पूज्य महोदय । जयोद्धार जयाचित्य सद्धर्मरथसारथे ॥१७५॥ जय निस्तीर्णसंसारपारावारगुणाकर । जय निःशेषनिष्पीतविद्यारत्नाकर प्रभो ॥१७६॥ नमस्ते परमानन्तसुखरूपाय तायिने । नमस्ते परमानन्दमयाय परमात्मने ॥१७॥ नमस्ते भवनोद्भासिज्ञानभाभारभासिने । नमस्ते नयनानन्दिपरमौदरिकत्विषे ॥१७८॥ नमस्ते मस्तकन्यस्तस्वहस्ताञ्जलिकुडुमलैः । स्तुताय त्रिदशाधीशैः स्वर्गावतरणोत्सवे ॥१७९॥ नमस्ते प्रचलन्मौलिघटिताञ्जलिबन्धनैः । नुताय मेरुशैलाग्रस्नाताय सुरसत्तमैः ॥१८०॥ नमस्ते मुकुटोपाग्रलग्नहस्तपुटो टैः । लौकान्तिकैरधीष्टाय परिनिष्क्रमणोत्सवे ॥१८१॥ नमस्ते स्वकिरीटापरस्त्रग्रावान्तचुम्बिभिः । कराजमुकुलैः प्राप्तकेवलेज्याय नाकिनाम् ॥१८२॥ नमस्ते पारनिर्वाणकल्याणेऽपि प्रवर्त्यति । पूजनीयाय वह्नीन्द्रज्वलन्मुकुटकोटिमिः ॥१८३॥
वाले, आपकी जय हो। हे जन्मजरारूपी रोगको जीतनेवाले, आपकी जय हो। हे मृत्युको जीतनेवाले, आपकी जय हो ॥ १७२॥ हे मदरहित, मायारहित, आपकी जय हो। हे मोहरहित, ममतारहित, आपकी जय हो। हे निर्मल और निर्द्वन्द्व, आपकी जय हो। हे शरीररहित, और पूर्ण ज्ञानसहित, आपकी जय हो ॥ १७३ ॥ हे समीचीन मार्गको जाननेवाले, आपकी जय हो। हे मिथ्या मार्गको रोकनेवाले, आपकी जय हो। हे कर्मरूपी शत्रुओंके मर्मको वेधन करनेवाले, आपकी जय हो। हे धर्मचक्रके द्वारा विजय प्राप्त करनेमें उत्कट, आपकी जय हो ॥ १७४ ।। हे यज्ञके अधिपति, आपकी जय हो । हे कर्मरूप ईधनको ध्यानरूप अग्निमें होम करनेवाले, आपकी जय हो। हे पूज्य तथा महान् वैभवको धारण करनेवाले, आपकी जय हो। हे उत्कृष्ट दयारूप चिह्नसे सहित तथा हे समीचीन धर्मरूपी रथके सारथि, आपकी जय हो ।।१७५॥ हे संसाररूपी समुद्रको पार करनेवाले, हे गुणोंकी खानि, आपकी जय हो । हे समस्त विद्यारूपी समुद्रका पान करनेवाले, हे प्रभो, आपकी जय हो ॥१७६।। आप उत्कृष्ट अनन्त सुखरूप हैं तथा सबकी रक्षा करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप परम आनन्दमय और परमात्मा हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥ १७७ ॥ आप समस्त लोकको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानकी दीप्तिके समूहसे देदीप्यमान हो रहे हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । आपके परमौदारिक शरीरको कान्ति नेत्रोंको आनन्द देनेवाली है इसलिए आपको नमस्कार हो ॥ १७८ ॥ हे देव, स्वर्गावतरण अर्थात् गर्भकल्याणकके उत्सवके समय इन्द्रोंने अपने हाथोंकी अंजलिरूपी बिना खिले कमल अपने मस्तकपर रखकर आपकी स्तुति की थी इसलिए आपको नमस्कार हो ॥१७९।। अपने नम्र हुए मस्तकपर दोनों हाथ जोड़कर रखनेवाले उत्तमउत्तम देवोंने जिनकी स्तुति की है तथा सुमेरु पर्वतके अग्रभागपर जिनका जन्माभिषेक किया गया है ऐसे आपके लिए नमस्कार है ॥ १८० । दीक्षाकल्याणकके उत्सवके समय अपने मुकुटके समीप ही हाथ जोड़कर लगा रखनेवाले लौकान्तिक देवोंने जिनका अधिष्ठान अर्थात् स्तुति की है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो ॥ १८१ ।। अपने मुकुटके अग्रभागमें लगे हुए रत्नोंका चुम्बन करनेवाले देवोंके हाथरूपी मुकुलित कमलोंके द्वारा जिनके केवलज्ञानकी पूजा की गयी है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो ।।१८२।। हे भगवन्, जब आपका मोक्षकल्याणक होगा १ शरीरबन्धनरहित । २ मर्म विध्यति ताडयतीति मर्मावित् तस्य संबुद्धिः । 'नहिवृतिवृषिव्यधिसहितनिरुचि क्वो कारकस्यति' दीर्घः । ३ उद्भट । ४ दयाचिह्न द०, ल०, इ०, अ०, प०, स० । ५ पालकाय । ६ ज्ञानकिरणसमूहप्रकाशिने । ७ स्तुताय । ८ भ्रमद्भिः , समर्थः वा। ९ अधिकमिष्टाय सत्कारानुमतायेत्यर्थः । १० भाविनि।