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चतुस्त्रिंशत्तम पर्व अपावरुद्य कैलासादहीन्द्रादिव देवराट् । चक्री प्रयाणमकरोद् विनीताभिमुग्वं कृती ॥१॥ सैन्यैरनुगतो रेजे 'प्रयांश्चक्री निजालयम् । गङ्गौव इव दुर्वारः सरिदोघेरपाम्पतिः ॥२॥ ततः कतिपयरेव प्रयाणैश्चक्रिणो बलम् । अयोध्यां प्रापदाबद्धतोरणां चित्रकेतनाम् ॥३॥ चन्दनद्रवसंसिकसुसंमृष्ट महीतला । पुरी स्नातानुलिप्ते व सा रंजे पत्युरागपे ॥४॥ नातिर निविष्टस्य प्रवेशसमय प्रभोः । चक्रमस्तारि चक्रं च नाक्रस्त पुरगोपुरम् ॥५॥ सा पुरी गोपुरोपान्तस्थितचक्रांशुरञ्जिता । धृतसंध्यातपेवासीत् कुङ्कमापिअरच्छविः ॥६॥ सत्यं भरतराजोऽयं धौरेयश्चक्रिणामिति । धृतदिव्यव सा जज्ञे ज्वलच्चक्रा पुरः पुरी ॥॥ ततः कतिपय देवाश्चक्ररत्नाभिरक्षिणः । स्थितमेकपद चक्रं वीक्ष्य विस्मयमाययुः ॥८॥ सुरा जातरुषः केचिकि किमित्युच्चरगिरः । अलातचक्रवद्रेमुः करवालार्पितैः करैः ॥९॥ किमम्बरमणेबिम्बमम्बरात्परिलम्बते । प्रतिसूर्यः किमुद्भत इत्यन्ये मुमुहुः ॥१०॥
अथानन्तर - सुमेरु पर्वतसे इन्द्रकी तरह कैलास पर्वतसे उतरकर उस बुद्धिमान् चक्रवर्तीने अयोध्याकी ओर प्रस्थान किया ।।१।। सेनाके साथ-साथ अपने घरकी ओर प्रस्थान करता हुआ चक्रवर्ती ऐसा सुशोभित होता था मानो नदियोंके समूहके साथ किसीसे न रुकनेवाला गंगाका प्रवाह समुद्रकी ओर जा रहा हो ॥ २ ॥ तदनन्तर कितने ही मुकाम तय कर चक्रवर्तीकी वह सेना जिसमें तोरण बँधे हुए हैं और अनेक ध्वजाएं फहरा रही हैं ऐसी अयोध्या नगरीके समीप जा पहुँची ॥ ३ ॥ जिसकी बुहारकर साफ की हुई पृथिवी घिसे हुए गीले चन्दनसे सींची गयी है ऐसी वह अयोध्यानगरी उस समय इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानो उसने पतिके आनेपर स्नान कर चन्दनका लेप ही किया हो ॥४॥ महाराज भरत नगरीके समीप ही ठहरे हुए थे वहाँसे नगरीमें प्रवेश करते समय जिसने समस्त शत्रुओंके समूहको नष्ट कर दिया है ऐसा उनका चक्ररत्न नगरके गोपुरद्वारको उल्लंघन कर आगे नहीं जा सका - बाहर ही रुक गया ॥ ५ ॥ गोपुरके समीप रुके हुए चक्रकी किरणोंसे अनुरक्त होनेके कारण जिसकी कान्ति कुंकुमके समान कुछ-कुछ पीली हो रही है ऐसी वह नगरी उस समय इस प्रकार जान पड़ती थी मानो उसने सन्ध्याकी लालिमा ही धारण की हो ।। ६ ॥ जिसके आगे चक्ररत्न देदीप्यमान हो रहा है ऐसी वह नगरी उस समय ऐसी जान पड़ती थी मानो यह भरतराज सचमुच ही सब चक्रवर्तियोंमें मुख्य है, अपनी इस बातकी प्रामाणिकता सिद्ध करनेके लिए उसने तप्त अयोगोलक आदिको ही धारण किया हो ॥ ७ ॥ तदनन्तर चक्ररत्नकी रक्षा करनेवाले कितने ही देव चक्रको एक स्थानपर खड़ा हुआ देखकर आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥ ८ ॥ जिन्हें क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे कितने ही देव, क्या है ? क्या है ? इस प्रकार चिल्लाते हुए हाथमें तलवार लेकर अलातचक्रकी तरह चारों ओर घूमने लगे ॥ ९॥ क्या यह आकाशसे सूर्यका बिम्ब लटक पड़ा है ? अथवा कोई दूसरा ही सूर्य उदित हुआ है ? ऐसा विचार कर कितने ही लोग बार-बार मोहित हो रहे थे ॥ १० ॥ १ अवतीर्य । २ मेरोः । ३ गच्छन् । ४ गांगौघ ल०,। ५ सुष्ठुसमाजित । ६ समीपे। ७ विभोः ल०, द० । ८ प्रवेशं नाकरोत् । ९ पुरुगोपुरे र०, ल०। १० शपथ । ११ अग्रभागे। १२ केचन । १३ युगपत् सपदि वा । १४ चक्रवतकाष्ठाग्निभ्रमणवत् । १५ मुहयन्ति स्म ।