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आदिपुराणम् आलोकयन् जिनसभावनिभूतिमिद्धां विस्फारितेक्षणयुगो युगदीर्घबाहुः । पृथ्वीश्वरैरनुगतः प्रणतोत्तमाङ्गैः प्रत्यावृतत्स्वसदनं मनुवंशकेतुः ॥२०१॥ पुण्योदयानिधिपतिर्विजिताखिलाशस्तनिर्जितौ' गमितषष्टिसमा सहस्रः । प्रीत्याऽभिवन्द्य जिनमाप परं प्रमोदं तत्पुण्यसंग्रह विधौ सुधियो यतध्वम् ॥२०२॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे भरतराजकैलासाभिगमनवर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशत्तम पर्व ॥३३॥
भगवान्के समवसरणकी प्रकाशमान विभूतिको देखनेसे जिनके दोनों नेत्र खुल रहे हैं, जिनकी भुजाएँ युग ( जुवारी ) के समान लम्बी हैं, मस्तक झुकाये हुए अनेक राजा लोग जिनके पीछेपीछे चल रहे हैं और जो कुलकरोंके वंशकी पताकाके समान जान पड़ते हैं ऐसे भरत महाराज अपने घरकी ओर लौटे ॥२०१।। चूंकि पुण्यके उदयसे ही चक्रवर्तीने समस्त दिशाएँ जीतीं, तथा उनके जीतनेमें साठ हजार वर्ष लगाये और फिर प्रीतिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको नमस्कार कर उत्कृष्ट आनन्द प्राप्त किया। इसलिए हे बुद्धिमान् जन, पुण्यके संग्रह करनेमें प्रयत्न करो ॥२०२।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतराजका कैलास पर्वतपर
जानेका वर्णन करनेवाला तैंतीसा पर्व समाप्त हुआ।
१ निखिलदिग्जये । २ संवत्सर । ३ तस्मात् कारणात् । ४ प्रयत्नं कुरुध्वम् ।