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त्रयत्रिंशत्तमं पर्व
यद्दिग्भ्रान्तिविमूढेन'महदेनो मयाऽर्जितम् । तत्त्वत्संदर्शनालीनं तमो नैशं रवेर्यथा ॥ १९४॥ स्वपदस्मृतिमात्रेण पुमानेति पवित्रताम् । किमुत त्वद्गुणस्तुत्या भक्त्यैवं सुप्रयुक्तया ॥ १९ ॥ भगवंस्त्वद् गुणस्तोत्राद् यन्मया पुण्यमार्जितम् । तेनास्तु त्वत्पदाम्भोजे परा भक्तिः सदापि मे ॥१९६॥
वसन्ततिलकावृत्तम्
इत्थं चराचरगुरुं परमादिदेवं स्तुत्वाऽधिराट धरणिपैः सममिद्धबोधः । आनन्दबाऽपलवसिक्तपुरःप्रदेशो भक्त्या ननाम करकुड्मललग्नमौलिः ॥१६७॥ श्रुत्वा पुराणपुरुषाच्च पुराणधर्मं कर्मारिचक्रजयलब्ध विशुद्धबोधात् । संप्रीतिमाप परमां भरताधिराजः प्रायो धृतिः कृतधियां स्वहितप्रवृत्तौ ॥ १६८ ॥ आपृञ्छ्य च स्वगुरुमादिगुरुं निधीशी व्यालोलमौलितटताडितपादपीठः । भूयोऽनुगम्य च मुनीन् प्रणतेन मूर्ध्ना स्वावासभूमिमभिगन्तुमना बभूव ॥ १६६ ॥ भक्त्यार्पितां त्रजमिवाधिपदं जिनस्य स्वां दृष्टिमन्वितसत्सु मनोविकास शेषास्थयैव च पुनर्विनिवर्त्य कृच्छ्रात् चक्राधिपो जिनसभाभवनात्प्रतस्थे ॥ २००॥
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समस्त लोकको पवित्र करनेवाली आपके चरणोंकी सेवा प्राप्त हुई है || १९३ || हे भगवन्, दिशाभ्रम होनेसे विमूढ़ होकर अथवा दिग्विजयके लिए अनेक दिशाओंमें भ्रमण करने के लिए मुग्ध होकर मैंने जो कुछ पाप उपार्जन किया था वह आपके दर्शन मात्रसे उस प्रकार विलीन हो गया है जिस प्रकार कि सूर्यके दर्शन से रात्रिका अन्धकार विलीन हो जाता है ॥ १९४ ॥ हे देव, आपके चरणोंके स्मरणमात्र से ही जब मनुष्य पवित्रताको प्राप्त हो जाता है तब फिर इस प्रकार भक्ति से की हुई आपके गुणोंकी स्तुतिसे क्यों नहीं पवित्रताको प्राप्त होगा ? अर्थात् अवश्य ही होगा ।। १९५ ।। हे भगवन्, आपके गुणोंकी स्तुति करनेसे जो मैंने पुण्य उपार्जन किया है उससे यही चाहता हूँ कि आपके चरणकमलोंमें मेरी भक्ति सदा बनी रहे । १९६ ॥ इस प्रकार चर अचर जीवोंके गुरु सर्वोत्कृष्ट भगवान् वृषभदेवको नमस्कार कर जिसने आनन्दके आँसुओं की बूँदोंसे सामनेका प्रदेश सींच दिया है, जिसका ज्ञान प्रकाशमान हो रहा है, और जिसने दोनों हाथ जोड़कर अपने मस्तकसे लगा रखे हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार किया ॥ १९७ ॥ कर्मरूपी शत्रुओंके समूहको जीतनेसे जिन्हें विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसे पुराण पुरुष भगवान् वृषभदेवसे पुरातन धर्मका स्वरूप सुनकर भरताधिपति महाराज भरत बड़ी प्रसन्नताको प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुषों को प्रायः अपना हित करने में ही सन्तोष होता है ।।१९८ ।। तदनन्तर अपने चंचल मुकुटके किनारेसे जिन्होंने भगवाके पादपीठका स्पर्श किया है ऐसे निधियोंके स्वामी भरत महाराज अपने पिता आदिनाथ भगवान् से पूछकर तथा वहाँ विराजमान अन्य मुनियोंको नम्र हुए मस्तकसे नमस्कार कर अपनी निवासभूमि अयोध्याको जानेके लिए तत्पर हुए ॥ १९९ ॥ चक्राधिपति भरतने जिसमें अनुक्रमसे खिले हुए सुन्दर फूल गुँधे हुए हैं और जो श्री जिनेन्द्रदेवके चरणों में भक्तिपूर्वक अर्पित की गयी है ऐसी मालाके समान, सुन्दर मनकी प्रसन्नतासे युक्त अपनी दृष्टिको शेषाक्षत समझ बड़ी कठिनाईसे हटाकर भगवान् के सभाभवन अर्थात् समवसरणसे प्रस्थान किया ॥ २०० ॥
१ दिग्विजयभ्रमणमूढेन । २ महत्पापम् । ३ नष्टम् । ४ आदित्यस्य । ५ - मर्जितम् ल० । ६ शोभनमनोविकासाम्, सुपुष्पविकासां च । ७ सिद्धशेषास्थया ।