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आदिपुराणम्
यथान्धतमसे दूरात्तक्यं ते विरुतैः शिखी । तथा त्वमपि सुव्यक्तैः सूतैराप्तोन्तिमर्हसि ॥१३९॥ आस्तामाध्यात्मिकीयं ते ज्ञानसंपन्महोदया । बहिर्विभूतिरेवैषा शास्ति नः शास्तृतां त्वयि ॥१४०॥ परार्ध्यमासनं सैंहं कल्पितं सुरशिल्पिभिः । रत्नरुक्छुरितं भाति तावकं " मेरुशृङ्गवत् ॥ १४१॥ "सुरैरुच्छ्रितमेत से छत्राणां त्रयमूर्जितम् । त्रिजगत्प्राभवे चिह्नं न प्रतीमः कथं वयम् ॥१४२॥ चामराणि तवामूनि वीज्यमानानि चामरैः । शंसन्त्यनन्यसामान्यमैश्वर्यं भुवनातिगम् ॥१४३॥ परितस्त्वत्सभां देव वर्षन्त्येते सुराम्बुदाः । सुमनोवर्षमुद्गन्धि व्याहृतमधुपव्रजम् ॥ १४४॥ सुरदुन्दुभयो मन्द्रं ध्वनन्त्येते' नभोऽङ्गणे । सुरकिंकर हस्ताग्रताडितास्त्वजयोत्सवे ॥ १४५ ॥ सुरैरासेवितोपान्तो जनताशोकतापनुत् । प्रायस्त्वामयमन्वेति " तवाशोकमही रुहः ॥ १४६॥ स्वदेहदीप्तयो दीप्राः प्रसरन्त्यमितः सभाम् । धृतबालातपच्छायास्तन्वाना नयनोत्सवम् ॥ १४७ ॥
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बीचमें जिसकी समस्त किरणें छिप गयी हैं ऐसा सूर्य यद्यपि दिखाई नहीं देता तथापि फूले हुए कमलोंसे उसका अस्तित्व सूचित हो जाता है उसी प्रकार आपका प्रत्यक्ष रूप भी दिखाई नहीं देता तथापि आपके श्रेष्ठ वचनोंके वैभवके द्वारा आपके प्रत्यक्ष रूपका अस्तित्व सूचित हो रहा है । भावार्थ- आपके महान् उपदेश ही आपको सर्वज्ञ सिद्ध कर रहे हैं ||१३८ ।। अथवा जिस प्रकार सघन अन्धकार में यद्यपि मयूर दिखाई नहीं देता तथापि अपने शब्दोंके द्वारा दूरसे ही पहचान लिया जाता है उसी प्रकार आपका आप्तपना यद्यपि प्रकट नहीं दिखाई देता तथापि आप अपने स्पष्ट और सत्यार्थ वचनोंसे आप्त कहलानेके योग्य हैं ।। १३९ ।। अथवा हे देव, जिसका बड़ा भारी अभ्युदय है ऐसी यह आपकी अध्यात्मसम्बन्धी ज्ञानरूपी सम्पत्ति दूर रहे, आपकी यह बाह्य विभूति ही हम लोगोंको आपके हितोपदेशीपनका उपदेश दे रही है । भावार्थ • आपकी बाह्य विभूति ही हमें बतला रही है कि आप मोक्षमार्गरूप हितका उपदेश देनेवाले सच्चे वक्ता और आप्त हैं ॥१४०॥ हे भगवन्, देवरूप कारीगरोंके द्वारा बनाया हुआ और रत्नोंकी किरणोंसे मिला हुआ आपका यह श्रेष्ठ सिंहासन मेरु पर्वत के शिखरके समान सुशोभित हो रहा है ।। १४१ ।। देवोंके द्वारा ऊपरकी ओर धारण किया हुआ यह आपका प्रकाशमान छत्रत्रय आपकी तीनों लोकोंकी प्रभुताका चिह्न है ऐसा हम क्यों न विश्वास करें ? भावार्थ- आपके मस्तक के ऊपर आकाशमें जो देवोंने तीन छत्र लगा रखे हैं वे ऐसे मालूम होते हैं मानो आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं यही सूचित कर रहे हों ।। १४२ ॥ देवोंके द्वारा बुलाये हुए ये चमर तीनों जगत्को उल्लंघन करनेवाले आपके असाधारण ऐश्वर्यको सूचित कर रहे हैं ।। १४३ || हे देव, ये देवरूपी मेघ आपकी सभाके चारों ओर अत्यन्त सुगन्धित तथा भ्रमरोंके समूहको बुलानेवाली फूलोंकी वर्षा कर रहे हैं || १४४ ।। हे प्रभो, आपके विजयोत्सवमें देवरूप किंकरोंके हाथोंके अग्र भागसे ताड़ित हुए ये देवोंके दुन्दुभि बाजे आकाश रूप आँगनमें गम्भीर शब्द कर रहे हैं ।। १४५ ।। जिसका समीप भाग देवोंके द्वारा सेवित है अर्थात् जिसके समीप देव लोग बैठे हुए हैं और जो जनसमूहके शोक तथा सन्तापको दूर करनेवाला है ऐसा यह अशोकवृक्ष प्राय: आपका ही अनुकरण कर रहा है क्योंकि आपका समीप भाग भी देवोंके द्वारा सेवित है और आप भी जनसमूहके शोक और सन्तापको दूर करनेवाले हैं ।। १४६ ॥ जिसने प्रातः कालके सूर्यकी कान्ति धारण की है और जो नेत्रोंका रही है ऐसी यह आपके शरीरकी देदीप्यमान कान्ति सभाके चारों ओर फैल रही है।
उत्सव बढ़ा भावार्थ
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१ वहि । २ श्रुतेर्योग्यो भवसि । ३ शिक्षकत्वम् । ४ रत्नकान्तिमिश्रितम् । ५ त्वत्संबन्धि । ६ देवरुद्धृतम् । ७ लोक्यप्रभुत्वे । ८ कथं न विश्वासं कुर्मः । ९ नदन्त्येते ल० । १० संतापहारि । ११ अनुकरोति ।