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एकत्रिंशत्तमं शार्दूलविक्रीडितम्
छ चन्द्रक पहासि रुचिरं चामीकरप्रोज्ज्वल
इण्ड चामरयुग्मकं सुरसरिड्डिण्डीरपिण्डच्छविः । रुक्मादेरिव संविभक्कमपरं कूटं मृगेन्द्रासनं
लेभेऽसौ विजयार्द्धनाथविजयाइनान्यथान्यान्यपि ॥ १५८ ॥ गीर्वाणः कृतमाल इत्यभिमतः संपूज्य तं सादरं "प्रादादाभरणानि यानि न सम्राट् तैरचका दलंकृततनुः कल्पद्रुमः पुष्पितो
पुनस्तंपामिह। स्युमितिः २ I
मेरोः सानुमिवाश्रित मणिमयं सोऽध्यासितो विरम् ॥ १५६ ॥ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण संग्रहे विजयार्द्ध गुहाद्वारोद्घाटनवर्णनं नामैकत्रिंशं पर्व ॥ ३१ ॥
के द्वारा जिसमें सुखों का सार प्रकट रहता है, और जिसमें अनेक सम्पदाओंका प्रसार रहता है ऐसा यह चक्रवर्तीका पद जिसके प्रसादसे लीलामात्रमें प्राप्त हो जाता है ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान्का शासन सदा जयवन्तं रहे ॥ १५७ ॥ महाराज भरतने विजयार्ध पर्वतके स्वामीको जीतकर उससे चन्द्रमाकी किरणोंकी हँसी करनेवाला सुन्दर छत्र, सुवर्णमय देदीप्यमान दण्डोंसे युक्त तथा गंगा नदीके फेनके समान कान्तिवाले दो मनोहर चमर, सुमेरु पर्वत से अलग किये हुए उसके शिखरके समान सिंहासन तथा और भी अन्य अनेक रत्न प्राप्त किये थे ।।१५८।। ‘कृतमाल' इस नामसे प्रसिद्ध देवने सत्कार कर महाराज भरतके लिए जो आभूपण दिये थे इस भरतक्षेत्रमें उनकी उपमा देने योग्य कोई भी पदार्थ नहीं है । उन अनुपम आभूषणोंसे जिनका शरीर अलंकृत हो रहा है और जो मणियों के बने हुए सिंहासनपर विराजमान हैं ऐसे महाराज भरतेश्वर उस समय मेरु पर्वत के शिखरपर स्थित फूले हुए कल्प वृक्ष के समान अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ।। १५९।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणमंग्रहके हिन्दी भाषानुवाद में विजयार्ध पर्वतकी गुफाका द्वार उघाड़नेकावर्णन करनेवाला इकतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
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१ ददौ । २ उपमा । ३ बभौ ।