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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
अथान्येचुरुपारूढसंभ्रमैर्बलनायकैः । प्रत्यपाल्यत संनद्धः प्रयाणसमयः प्रभोः ॥१॥ गजताश्वीयरथ्यानां पादातानां च संकुलैः । न नृपाजिरमेवासीद् रुद्धमद्रेवनान्यपि ॥२॥ जयकुञ्जरमारूढः परीतो नृपकुञ्जरैः । रेजे निर्यन्प्रयाणाय सम्राट शक्र इवामरैः ॥३॥ किंचित् पश्चान्मुखं गत्वा सेनान्या शोधिते पथि । ध्वजिनी संकुचन्त्यासीदीर्याशुद्धिं श्रितेव सा ॥१॥ प्रगुणस्थानसोपानां रूप्यादेः श्रेणिमश्रमात् । मुनेः शुद्धिरिव श्रेणीमारूढ़ा सा पताकिनी ॥५॥ . तमिति गुहा यासौ गिरिव्याससमायतिः । उच्छ्रिता योजनान्यष्टौ ततोऽर्द्धाधिकविस्तृतिः ॥६॥ वाजं कपाटयोर्युग्मं या स्वोच्छायमितोच्छिति । दधे पृथक स्वविष्कम्भसाधिकव्यंशविस्तृतिः ॥७॥ पराय॑मणिनिर्माणरुचिमवारबन्धना । तदधस्तलनिस्सर्पसिन्धुस्रोतोविराजिता ॥८॥ अशक्योद्घाटनाऽन्येषां मुक्त्वा चक्रिचमूपतिम् । तन्निरर्गलितत्वाच्च प्रागेव कृतनिर्वृतिः ॥९॥
अथानन्तर-दूसरे दिन जिन्हें जल्दी हो रही है और जो हरएक प्रकारसे तैयार हैं ऐसे सेनापति लोग चक्रवर्तीके चलनेके समयकी प्रतीक्षा करने लगे ॥१॥ हाथियोंके समूह, घोड़ोंके समूह, रथोंके समूह और पैदल चलनेवाले सैनिक, इन सबकी भीड़से केवल महाराजका आँगन ही नहीं भर गया था किन्तु विजयार्ध पर्वतके वन भी भर गये थे ॥२॥ विजयी हाथीपर चढ़ा हुआ और अनेक श्रेष्ठ राजाओंसे घिरा हुआ चक्रवर्ती जब विजयके लिए निकला तब ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि ऐरावत हाथीपर चढ़ा हुआ और देवोंसे घिरा हुआ इन्द्र सुशोभित होता है ॥३॥ भरतकी वह सेना कुछ पश्चिमकी ओर जाकर सेनापतिके द्वारा शद्ध किये हए मार्गमें संकुचित होकर चल रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो वह ईर्यापथ शुद्धिको ही प्राप्त हुई हो ॥४॥ जिस प्रकार मुनियोंकी विशुद्धता उत्तम गुणस्थान ( आठवें, नौवें, दशवें रूपी सीढ़ियोंसे युक्त श्रेणी ( उपशम श्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी ) पर चढ़ती है उसी प्रकार चक्रवर्तीकी सेना, जिसपर उत्तम सीढ़ियाँ बनी हुई हैं ऐसी विजयाध पर्वतकी श्रेणीपर जा चढ़ी थी ॥५॥ वहाँ तमिसा नामको वह गुफा थी जो कि पर्वतकी चौड़ाईके बराबर लम्बी थी, आठ योजन ऊँची थी और उससे डेवढ़ी अर्थात् बारह योजन चौड़ी थी जो अपनी ऊँचाईके बराबर ऊँचे और कुछ अधिक छह-छह योजन चौड़े वज्रमयी किवाड़ोंके युगल धारण कर रही थी, जिसके दरवाजेकी चौखट महामूल्य रत्नोंसे बनी हुई होनेसे अत्यन्त देदीप्यमान थी, जो अपने नीचेसे निकलते हुए सिन्धु नदीके प्रवाहसे सुशोभित थी, चक्रवर्तीके सेनापतिको छोड़कर जिसे और कोई उघाड़ नहीं सकता था, जो सेनापतिके द्वारा पहले ही उघाड़ दी जानेसे शान्त पड़ गयी थी-भीतरकी गरमी निकल जानेसे ठण्डी पड़ गयी थी। जो यद्यपि जगत्की सृष्टिके समान अनादि थी तथापि किसीके द्वारा बनायी हुईके समान मालम
१ प्रतीक्ष्यते स्म । २ सैन्यानाम् ल० । ३ पदातीनाम् ल०। ४ परिवृतः । ५ निर्गच्छन् । ६ पश्चिमाभिमुखम् । ७ ऋजुसंस्थानसोपानां प्रकृष्टगुणस्थानसोपानांच। ८ सेना। ९ पञ्चाशद्योजनायामेति भावः । १० अष्टयोजनोत्सेधात् । ११ द्वादशयोजनविस्तारेत्यर्थः । १२ यमलकवाटे एकैककवाटम् । १३ द्वादशयोजनविस्तारवद् गुहायाः साधिकद्वितीयं विस्तारम् । यमलरूपकवाटे एकैककवाटस्य साधिकषड्योजनविस्तृतिरित्यर्थः । १४ द्वारबन्धादधस्तलनिर्गच्छत् । देहल्या अधस्तले निर्गच्छदिति भावः । १५ तेन चमूपतिना समुद्घाटितकवाटत्वात् । १६ कृतोपशान्तिः ।