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आदिपुराणम् किसलयपुटभेदी देवदारुद्रुमाणामसकृदमरसिन्धोः सीकरान्व्याधुनानः । श्रमसलिलममुष्णा'दुष्णसंभूष्णु जिष्णोः, खचरगिरितटान्तान्निष्पत न्मातरिश्वा ॥१९६॥ सपदिविजयसैन्यैर्निर्जितम्लेच्छखण्डः समपहृतजयश्रीश्चक्रिणादिष्टमात्रात् । जिनमिव जयलक्ष्मी सन्निधानं निधीनां परि वृढमुपतस्थौ नम्रमौलिश्चमूभृत् ॥१९७॥
शार्दूलविक्रीडितम् जित्वा म्लेच्छनृपी विजित्य च सरं प्रालेयशैलेशिनं देव्यौ च प्रणमय्य दिव्यमुभयं स्वीकृत्य भद्रासनम् । हेलानिर्जितखेचराद्विरधिराट प्रत्यन्तपालान् जयन् सेनान्या विजयी व्यजेष्ट निखिला षटखण्डभूषां भुवम् १९८ पुण्यादित्ययमाहिमाह्वयगिरेरातोयधेः 'प्राक्तनादाचापा'च्यपयोनिधेर्जलनिधेरा च प्रतीच्यादितः । चक्रेश्मामरिचक्र भीकरकरश्चक्रेण चक्री वशे तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियो जैने मते सुस्थिताः ॥१९९॥
इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
भरतोत्तरार्द्धविजयवर्णनं नाम द्वात्रिंशत्तमं पर्वे ॥३२॥
युक्त नवीन कोमल पत्तोंके भीतर प्रवेश करनेसे मन्द हआ तथा देवांगनाओंके स्तनतटपर लगे हुए रेशमी वस्त्रोंमें जिसको सुगन्धि प्रवेश कर गयी है ऐसा वायु जिस समय उस विजयार्ध पर्वतकी गुफाओंमें धीरे-धीरे बह रहा था उस समय निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीकी सेनाके डेरोंकी रचना शुरू हुई थी ॥१९५।। देवदारु वृक्षोंके कोमल पत्तोंके सम्पुटको भेदन करनेवाला तथा गंगा नदीके जलकी बूंदोंको बार-बार हिलाता हुआ और विजयाध पर्वतके किनारेके अन्त भागसे आता हुआ वायु गरमोसे उत्पन्न हुए महाराज भरतके पसीनेको दूर कर रहा था ।।१९६॥ चक्रवर्तीके द्वारा आज्ञा प्राप्त होनेमात्रसे ही जिसने अपनी विजयी सेनाओंके द्वारा बहुत शीघ्र समस्त म्लेच्छ खण्ड जीत लिये हैं और जो जयलक्ष्मीको ले आया है ऐसा सेनापति अपना मस्तक झुकाये हुए, निधियोंके स्वामी भरत महाराजके समीप आ उपस्थित हुआ। उस समय भरत ठीक जिनेन्द्रदेवके समान मालूम होते थे क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवके समीप सदा जयलक्ष्मी विद्यमान रहती है उसी प्रकार उनके समीप भी जयलक्ष्मी सदा विद्यमान रहती थीं ॥१९७॥ विजयी भरतने ( चिलात और आनर्त नामके ) दोनों म्लेच्छराजाओंको जीतकर हिमवान् पर्वतके स्वामी हिमवान् ‘देवको कुछ ही समयमें जीता, तथा ( गंगा सिन्धु नामकी ) दोनों देवियोंसे प्रणाम कराकर ( उनके द्वारा दिये हुए ) दो दिव्य भद्रासन स्वीकृत किये,, और विजयाध पर्वतको लीला मात्रमें जीतकर उसके समीपवर्ती राजाओंको जीतते हुए उन्होंने सेनापतिके साथ-साथ छह खण्डों से सुशोभित भरत क्षेत्रकी समस्त पृथिवीको जीता ॥१९८॥ जिनका हाथ अथवा टैक्स शत्रुओंके समूहमें भय उत्पन्न करनेवाला है ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके द्वारा पुण्यसे ही हिमवान् पर्वतसे लेकर पूर्व दिशाके समुद्र तक और दक्षिण समुद्रसे लेकर पश्चिम समुद्र तक समस्त पृथिवी अपने वश को थी। इसलिए बुद्धिमान् लोगोको जैन-मतमें स्थिर रहकर सदा पुण्य उपार्जन करना चाहिए ।।१९९।। इस प्रकार अर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रह के हिन्दी
भाषानुवादमें उत्तरार्ध भरतको विजयका वर्णन करनेवाला
बत्तीसवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१ अनाशेयत् । २ उष्णसंजातम् । ३ आगच्छन् । ४ आज्ञातः । ५ नाथम् । ६ प्राप्तवानित्यर्थः । ७ सुचिरं ल०, द०। ८ हिमवगिरिपतिम् । ९ गङ्गादेवीसिन्धुदेव्यो। १० पूर्वात् । ११ दक्षिणसमुद्रात् । १२ भर्यकरकरः । 'भयंकरं प्रतिभय'मित्यभिधानात् ।।