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त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व
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तेजसा चक्रवालेन स्फुरता परितो वृतम् । परिवेषवृतस्यार्कमण्डलस्यानुकारकम् ॥११७॥ वियद'दुन्दुभिभिमन्द्रघोषैरुद्धोषितोदयम् । सुमनोवर्षिभिर्दिव्यजी मूतैरूर्जितश्रियम् ॥११८॥ स्फुरद्गम्भीरनि?षप्रीणितत्रिजगत्समम् । प्रावृषेण्यं पयोवाहमिव धर्माम्बुवर्षिणम् ॥११६॥ नानाभाषात्मिकां दिव्यभाषामेकात्मिकामपि । प्रथयन्तमयत्नेन हृद्ध्वान्तं नुदतीं नृणाम् ॥१२०॥ अमेयवीर्यमाहार्यविरहे ऽप्यतिसुन्दरम् । सुवाग्विभवमुत्सर्पसौरभं शुभलक्षणम् ॥५२१॥ अस्वेदमलमच्छायमपक्ष्मस्पन्दबन्धुरम् । सुसंस्थानमभेद्यं च दधानं वपुरूर्जितम् ॥१२२॥ रत्यप्रत_माहात्म्यं दूरादालोकयन् जिनम् । प्रह्वोऽभूत्स महीस्पृष्ट जानुरानन्दनिर्भरः ॥१२३॥ दूरानतचलन्मौलिरालोलमणिकुण्डलः । स रेजे प्रणमन् भक्त्या जिनं रौरिवार्घयन् ॥१२४॥ ततो विधिवदानचं जलगन्धस्रगक्षतैः । चस्प्रदीपधूपैश्च सफलैः स फलेप्सया ॥१२५॥ कृतपूजाविधिर्भूयः प्रणम्य परमेष्टिनम् । स्तोतुं स्तुतिभिरत्युच्चैरारेभे भरताधिपः ॥१२६॥
त्वां स्तोष्ये परमात्मानमपारगुणमच्युतम् । चोदितोऽहं बलाद् भवत्या शक्त्या मन्दोऽप्यमन्दया ॥१२७॥ पर्वतके समान जान पड़ते थे जो कि शिखरोंके समीप भागसे पड़ते हुए झरनोंसे व्याप्त हो रहा है-जो चारों ओरसे फैलते हुए कान्तिमण्डलसे व्याप्त हो रहे थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो गोल परिधिसे घिरे हुए सूर्यमण्डलका अनुकरण ही कर रहे हों-गम्भीर शब्द करनेवाले आकाशदुन्दुभियोंके द्वारा जिनका माहात्म्य प्रकट हो रहा था तथा फूलोंकी वर्षा करनेवाले दिव्य मेघोंके द्वारा जिनकी शोभा बढ़ रही थी-जिन्होंने चारों ओर फैलती हुई अपनी गम्भीर गर्जनासे तीनों लोकोंके जीवोंकी सभाको सन्तुष्ट कर दिया था और इसीलिए जो धर्मरूपी जलकी वर्षा करते हुए वर्षाऋतुके मेघके समान जान पड़ते थे, जो उत्पत्तिस्थानकी अपेक्षा एक रूप होकर भी अतिशयवश 'श्रोताओंके कर्णकुहरके समीप अनेक भाषाओंरूप परिणमन करनेवाली और जीवोंके हृदयका अन्धकार दूर करनेवाली दिव्य ध्वनिको बिना किसी प्रयत्नके प्रसारित कर रहे थे-जो अनन्त वीर्यको धारण कर रहे थे, आभूषणरहित होनेपर भी अतिशय सुन्दर थे, वाणीरूपी उत्तम विभूतिके धारक थे, जिनके शरीरसे सुगन्धि निकल रही थी, जो शुभ लक्षणोंसे सहित थे, पसीना और मलसे रहित थे, जिनके शरीरकी छाया नहीं पड़ती थी, जो आँखोंके पलक न लगनेसे अतिशय सुन्दर थे, समचतुरस संस्थानके धारक थे, और जो छेदन-भेदनरहित अतिशय बलवान् शरीरको धारण कर रहे थे-ऐसे अचिन्त्य माहात्म्यके धारक श्री जिनेन्द्र भगवान्को दूरसे ही देखते हुए भरत महाराज आनन्दसे भर गये तथा उन्होंने अपने दोनों घुटने जमीनपर टेककर श्री भगवान्को नमस्कार किया ॥११३-१२३॥ दूरसे ही नम्र होनेके कारण जिनका मुकुट कुछ-कुछ हिल रहा है और मणिमय कुण्डल चंचल हो रहे हैं ऐसे भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेवको प्रणाम करते हुए चक्रवर्ती भरत ऐसे जान पड़ते थे मानो उन्हें रत्नोंके द्वारा अर्घ ही दे रहा हो ॥१२४॥ तदनन्तर उन्होंने मोक्षरूपी फल प्राप्त करनेकी इच्छासे विधिपूर्वक जल, चन्दन, पुष्पमाला, अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंके द्वारा भगवान्की पूजा की ।।१२५॥ पूजाकी विधि समाप्त कर चुकनेके बाद भरतेश्वरने परमेष्ठी वृषभदेवको प्रणाम किया और फिर अच्छे-अच्छे स्तोत्रोंके द्वारा उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥१२६।। हे भगवन, आप परमात्मा हैं, अपार गणोंके धारक हैं. अविनश्वर हैं और मैं शक्तिसे हीन हूँ तथापि बड़ी भारी भक्तिसे जबरदस्ती प्रेरित होकर आपकी स्तुति करता
१ विष्वग् इ० । २ आकाशे ध्वनदुन्दुभिः । ३ सुरमेघैः । ४ प्रावृषि भवम् । ५ आभरणाद् विरहितेऽपि । ६ समचतुरस्र । ७ महीपृष्ठ ल०।