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त्रयस्त्रिंशत्तमं पर्व सावनिः सावनीवोद्यद् ध्वजमालातताम्बरा । सचक्रा सगजा रंजे जिनराजजयोर्जिता ॥१३॥ केतवो हरिवस्त्राब्जबहिणेभगरुत्मनाम् । स्रगुक्षहंस चक्राणां दशधोक्ता जिनेशिनः ॥१४॥ तानेकशः शतं चाष्टौ ध्वजान प्रतिदिशं स्थितान् । वरीवश्यन्न गाचक्री स तदावनेः परम् ॥१५॥ द्वितीयमार्जुनं सालं सगोपुरचतुष्टयम् । व्यतीत्य परतोऽपश्यन्नाट्यशालादिपूर्ववत् ॥५६॥ तत्र पश्यन्सुरस्त्रीणां नृत्यं गीतं निशामयन् । धूपामोदं च संजिघ्रन् सुप्रीताक्षी ऽभवद् विभुः ॥९॥ कक्षान्तरे ततस्तस्मिन् कल्पवृक्षवनावलिम् । स्रग्वस्त्राभरणादीलदा स निरूपयन् ॥१८॥ सिद्धार्थपादपस्तित्र सिद्धबिम्बैरधिष्ठितान् । परीत्य प्रणमन् प्रार्चीदर्चितानाकिनायकैः ॥१९॥ वनवेदी ततोऽतीत्य चतुर्गोपुरमण्डनाम् । प्रासादरुद्वामवनी स्तूपांश्च प्रभुरक्षत ॥१०॥ प्रासादा विविधास्तत्र सुरावासाय कल्पिताः । त्रिचतुष्पञ्चभूम्याद्या''नानाच्छन्दैरलंकृताः॥१०१॥ स्तूपाश्च रत्ननिर्माणाः सान्तरा रत्नतोरणैः । समन्ताजिनबिम्बैस्तै निचिताशा काशिरे ॥१०॥
तां पश्यन्नर्चयंस्तांश्च तांश्च तांश्च स कीर्तयन् । तां च कक्षां व्यतीयाय विस्मयं परायिवान् ॥१०३॥ उन्हें बुला ही रही हो ॥९२॥ वह ध्वजाभूमि यज्ञभूमिके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार यज्ञभूमिका आकाश अनेक फहराती हुई ध्वजाओंके समूहसे व्याप्त होता है उसी प्रकार उस ध्वजाभूमिका आकाश भी अनेक फहराती हुई ध्वजाओंके समहसे व्याप्त हो रहा था, जिस प्रकार यज्ञभूमि धर्मचक्र तथा हाथी आदिके मांगलिक चिह्नोंसे सहित होती है उसी प्रकार वह ध्वजाभूमि भी चक्र और हाथीके चिह्नोंसे सहित थी, तथा जिस प्रकार यज्ञभूमि जिनेन्द्रदेवके जय अर्थात् जयजयकार शब्दोंसे व्याप्त होती है उसी प्रकार वह ध्वजाभूमि भी जिनेन्द्रदेवके जयजयकार शब्दोंसे व्याप्त थी अथवा कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लेनेसे प्रकट हुई थी ॥९३।। जिनराजकी वे ध्वजाएँ सिंह, वस्त्र, कमल, मयूर, हाथी, गरुड़, माला, बैल, हंस और चक्र इन चिह्नोंके भेदसे दश प्रकारकी थीं ॥९४॥ वे ध्वजाएँ प्रत्येक दिशामें एकएक प्रकारको एक सौ आठ स्थित थीं, उन सबकी पूजा करते हुए चक्रवर्ती महाराज उस ध्वजाभूमिसे आगे गये ।।१५।। आगे चलकर उन्होंने चार गोपुर दरवाजोंसहित चाँदोका बना हुआ दूसरा कोट देखा और उसे उल्लंघन कर उसके आगे पहलेके समान ही नाट्यशाला आदि देखीं ।।९६॥ वहाँ देवांगनाओंके नृत्य देखते हुए, उनके गीत सुनते हुए और धूपकी सुगन्ध सूंघते हुए महाराज भरतकी इन्द्रियाँ बहुत ही सन्तुष्ट हुई थीं ।।९७।। आगे चलकर उन्होंने उसी कक्षाके मध्यमें माला, वस्त्र और आभूषण आदि अभीष्ट फल देनेवाली कल्प वृक्षोंके वनकी भूमि देखी ॥९८।। उसी वनभूमिमें उन्होंने सिद्धोंकी प्रतिमाओंसे अधिष्ठित और इन्द्रोंके द्वारा पूजित सिद्धार्थ वृक्षोंकी प्रदक्षिणा दी, उन्हें प्रणाम किया और उनकी पूजा की ॥९९।। तदनन्तर चार गोपुर दरवाजोंसे सुशोभित वनकी वेदीको उल्लंघन कर चक्रवर्तीने अनेक महलोंसे भरी हई पथिवी और स्तुप देखे ॥१००। वहाँ देवोंके रहनेके लिए जो महल बने हुए थे वे तीन खण्ड, चार खण्ड, पाँच खण्ड आदि अनेक प्रकारके थे तथा नाना प्रकारके उपकरणोंसे सजे हुए थे ।।१०१।। जिनके बीच-बीच में रत्नोंके तोरण लगे हए हैं और जिनपर चारों ओरसे जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाएँ विराजमान हैं ऐसे वे रत्नमयी स्तूप भी बहुत अधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१०२।। उन स्तूपोंको देखते हए, उनकी पूजा करते हए और उन्हींका वर्णन करते हुए जिन्हें परम आश्चर्य प्राप्त हो रहा है ऐसे भरतने क्रम-क्रमसे उस कक्षाको उल्लंघन १ यज्ञसंबन्धिनीव । सवनः यज्ञः । २ मालावृषभ । ३ एकैकस्मिन् ( दिशि )। ४ पूजयन् । ५ प्रथमसालोक्तवत् । ६ शृण्वन् । ७ आघ्राणयन् । ८ प्रीतेन्द्रियः । ९ वनावनिम् ल०, प० । १० पश्यन् । ११ स्वस्तिकसर्वतोभद्रनन्द्यावर्तरुचकवर्द्धमानादिरचनाविशेषैः । १२ व्यतीतवान् ।