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आदिपुराणम्
ततः किंचित्पुरो गच्छन् सालमाद्यं व्यलोकयत् । निषधाद्रितटस्पर्धिवपुषं रत्नभाजुषम् ॥८०॥ सुरदौवारिका रक्ष्यतयतोलीतलाश्रितान् । सोऽपश्यन्मङ्गलद्रव्यभेदांस्तत्राष्टधा स्थितान् ॥ ८१ ॥ ततोऽन्तः प्रविशन्वीक्ष्य द्वितयं नाट्यशालयोः । प्रीतिं प्राप परां चक्री शक्रस्त्रीवर्तनोचितम् ॥ ८२ ॥ धूपघटयोर्युग्मं तत्र वीथ्युभयान्तयोः । सुगन्धीन्धन संदोहोद्गन्धिधूपं व्यलोकयत् ॥ ८३ ॥ कक्षान्तरे द्वितीयेऽस्मिन्नसौ वनचतुष्टयम् । निदध्यौ विगलत्पुष्पैः कृतार्थमिव शाखिभिः ॥ ८४ ॥ "प्रफुलवनमाशोकं साप्तपर्णं च चाम्पकम् । आम्रेडितं वनं प्रेक्ष्य सोऽभूदाम्रेडितोत्सवः ॥ ८५ ॥ तत्र चैत्यद्रुमांस्तुङ्गान् जिनबिम्बैरधिष्टितान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् पूजितान्नृसुरेशिनाम् ॥ ८६ ॥ तत्र किन्नरनारीणां गीतैरामन्द्रमूर्च्छनैः । लेभे परां धृतिं चक्री गायन्तीनां जिनोत्सवम् ॥ ८७ ॥ सुगन्धिपवनामोदनिःश्वासा कुसुमस्मिता । वनश्रीः कोकिलालापैः संजजल्पेव' चक्रिणा ॥ ८८ ॥ भृङ्गीसंगीतसंमूर्च्छत् कोकिलानकनिस्स्वनैः । अनङ्गविजयं जिष्णोर्वनानीवोदघोषयन् ॥ ८९ ॥ त्रिजगज्जनता जत्र प्रवेशरभसोत्थितम् । तत्राशृणोन्महाघोषमपां घोषमिवोदधेः ॥९०॥ वन वेदीमथापश्यद् वनरुद्धावनेः परम् । वनराजी विलासिन्याः काञ्चीमिव कणन्मणिम् ॥९१॥ तद्गोपुरावनिं क्रान्त्वा ध्वजरुद्वावनिं सुरान् । आजुहू पुमिवाऽपश्य मरुधूतैर्ध्वजांशुकैः ॥ ९२ ॥
वन देखा ॥ ७९ ॥ | वहाँसे कुछ आगे जाकर उन्होंने पहला कोट देखा जो कि निषध पर्वतके किनारे के साथ स्पर्धा कर रहा था और रत्नोंकी दीप्तिसे सुशोभित था ||८०|| देवरूप द्वारपाल जिसकी रक्षा कर रहे हैं ऐसे गोपुरद्वार के समीप रखे हुए आठ मंगलद्रव्य भी उन्होंने देखे ॥८१॥ तदनन्तर भीतर प्रवेश करते हुए चक्रवर्ती भरत इन्द्राणीके नृत्य करनेके योग्य दोनों ओरकी दो नाट्यशालाओंको देखकर परम प्रीतिको प्राप्त हुए ||८२॥ वहाँसे कुछ आगे चलकर मार्गके दोनों ओर बगल में रखे हुए तथा सुगन्धित ईंधनके समूहके द्वारा जिनसे अत्यन्त सुगन्धित धूम निकल रहा है ऐसे दो धूपघट देखे || ८३ || इस दूसरी कक्षा में उन्होंने चार वन भी देखे जो कि झड़ते हुए फूलोंवाले वृक्षोंसे अर्घ देते हुएके समान जान पड़ते थे || ८४|| फूले हुए अशोक वृक्षोंका वन, सप्तपर्ण वृक्षोंका वन, चम्पक वृक्षोंका वन और आमोंका सुन्दर वन देखकर भरत महाराजका आनन्द भी दूना हो गया था ।। ८५ ।। श्रीमान् भरतने उन वनोंमें जनप्रतिमाओं से अधिष्ठित और इन्द्र नरेन्द्र आदिके द्वारा पूजित बहुत ऊँचे चैत्यवृक्षोंकी
भी पूजा की ॥८६॥ उन्हीं वनोंमें किन्नर जातिकी देवियाँ भगवान्का उत्सव गा रही थीं, 'उनके गम्भीर तानवाले गीतोंसे चक्रवर्ती भरतने परम सन्तोष प्राप्त किया था ॥ ८७ ॥ सुगन्धित पवन ही जिसका सुगन्धिपूर्ण निःश्वास है और फूल ही जिसका मन्द हास्य है ऐसी वह वनकी लक्ष्मी कोयलों मधुर शब्दोंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो चक्रवर्तीके साथ वार्तालाप ही कर रही हो ॥ ८८ ॥ भ्रमरियोंके संगीतसे मिले हुए कोकिलारूपी नगाड़ोंके शब्दोंसे वे वन ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनेन्द्र भगवान् ने जो कामदेवको जीत लिया है उसीकी घोषणा कर रहे हों ॥ ८९ ॥ वहाँपर तीनों लोकोंके जनसमूहके निरन्तर प्रवेश करनेकी उतावलीसे जो समुद्रके जलकी गर्जनाके समान बड़ा भारी कोलाहल हो रहा था उसे भी भरत महाराजने सुना था ।। ९० ।। तदनन्तर उन वनोंसे रुकी हुई पृथिवीके आगे उन्होंने वनपंक्तिरूपी विलासिनी स्त्रीकी मणिमयी मेखला के समान मणियोंसे जड़ी हुई वनकी वेदी देखी ।। ९९ ।। वनवेदी के मुख्य द्वारकी भूमिको उल्लंघन कर चक्रवर्ती भरतने ध्वजाओंसे - पृथिवी उस समय ऐसी मालूम हो रही थी मानो वायुसे हिलते हुए ध्वजाओंके वस्त्रोंके द्वारा
रुकी हुई पृथिवी देखी, वह
१ ददर्श । २ प्रफुल्लवन - ल० । ३ आम्रेडितवनं ल० । आम्रमिति स्तुतम् । ४ द्वित्रिगुणितोत्सवः । ५ जल्पति स्म । ६ संमिश्रीभवत् । ७ स्फुरद्रत्नाम् । ८ सुराट् ल० द० । ९ आह्वातुमिच्छुम् ।