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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
जगत्स्थितिरिवानाद्या घटितव' च केनचित् । जैनी 'श्रुतिरिवोपात्तगाम्भीर्या मुनिभिर्मता ॥ १० ॥ व्यायता जीविताशेव मूच्छेव च तमोमयी । गतेवोल्लाघतां कृच्छ्रान्मुक्तोष्मा शोधितोदरा ॥११॥ कुटीव च प्रसूताया निषिद्वान्यप्रवेशना । कृतरक्षाविधिर्द्वारे धृतमङ्गलसंविधिः ॥ १२ ॥ तामालोक्य बल जिष्णोर्द्वरादासीत्स साध्वसम् । तमसा सूचिभेद्येन कजलेनेव संभृताम् ॥१३॥ चक्रिणा ज्ञापितो भूयः सेनानीः सपुरोहितः । तत्तमो निर्गमोपायें प्रयत्नमकरोत्ततः ॥ १४ ॥ काकिणीमणिरत्नाभ्यां प्रतियोजनमालिखत् । गुहाभित्तिये सूर्य सोमयोर्मण्डलद्वयम् ॥ १५ ॥ तत्प्रकाशकृतोद्योतं सज्योत्स्नातमसंनिधिम् । गृहामध्यमपध्वान्तं व्यगाहत ततो बलम् ॥ १६ ॥ चक्ररज्वलद्वीपे ससेनान्या पुरः स्थिते । बलं तदनुमार्गेण प्रविभज्य द्विधा ययौ ॥ १७ ॥ परिसिन्धु नदीस्रोतः प्राक् पश्चाच्चोभयोः पयोः । बलं प्रायज्जलं सिन्धोरुपयुज्योपयुज्य तत् ॥ १८ ॥ पथि द्वैधे स्थिता तस्मिन् सेनाग्रण्या नियन्त्रिता' । सा चमूः संशय द्वैधं तदा प्रापद् दिगाश्रयम् ॥ ततः प्रयाणकैः कैश्चित् प्रभूतयवसोदकैः " । गुहार्द्ध संमितां भूमिं व्यतीयाय पतिर्विशाम् ॥ २० ॥
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होती थी, अत्यन्त गम्भीर ( गहरी ) होनेके कारण जिसे मुनि लोग जिनवाणीके समान मानते थे क्योंकि जिनवाणी भी अन्त्यन्त गम्भीर ( गूढ़ अर्थोंसे भरी हुई ) होती है । जो जीवित रहनेकी आशाके समान लम्बी थी, मूर्च्छाके समान अन्धकारमयी थी, गरमी निकल जाने तथा भीतरका प्रदेश शुद्ध हो जानेसे जो नीरोग अवस्थाको प्राप्त हुईके समान जान पड़ती थी, जिसमें चक्रवर्तीकी सेनाको छोड़कर अन्य किसीका प्रवेश करना मना था, जिसके द्वारपर रक्षाकी सब विधि की गयी थी, जिसके समीप मंगलद्रव्य रखे हुए थे और इसलिए जो प्रसूता (बच्चा उत्पन्न करनेवाली) स्त्रीकी कुटी ( प्रसूतिगृह ) के समान जान पड़ती थी ।। ६-१२ ।। सुईकी नोकसे भी जिसका भेद नहीं हो सकता ऐसे कज्जलके समान गाढ़ अन्धकारसे भरी हुई उस गुफाको देखकर चक्रवर्तीकी सेना दूरसे ही भयभीत हो गयी थी ||१३|| तदनन्तर जिसे चक्रवर्तीने आज्ञा दी है ऐसे सेनापतिने पुरोहित के साथ-साथ उस अन्धकारसे निकलने का उपाय करनेके लिए फिर प्रयत्न किया ||१४|| उन्होंने गुफाकी दोनों ओरकी दीवालोंपर काकिणी और चूड़ामणि रत्नसे एक-एक योजनकी दूरीपर सूर्य और चन्द्रमाके मण्डल लिखे ||१५|| तदनन्तर उन मण्डलोंके प्रकाशसे जिसमें प्रकाश किया जा रहा है, चाँदनी और धूप दोनों ही जिसमें मिल रहे हैं तथा जिसका सब अन्धकार नष्ट हो गया है, ऐसे गुफाके मध्य भाग में सेनाने प्रवेश किया ||१६|| आगे-आगे सेनापतिके साथ-साथ चक्ररत्नरूपी देदीप्यमान दीपक चल रहा था और उसके पीछे-पीछे उसी मार्ग से दो भागों में विभक्त होकर सेना चल रही थी || १७|| वह सेना सिन्धु नदी प्रवाहको छोड़कर पूर्व तथा पश्चिम की ओरके दोनों मार्गोंमें सिन्धु नदी के जलका उपयोग करती हुई जा रही थी || १८|| उन दोनों मार्गों पर चलती हुई तथा सेनापतिके द्वारा वश की हुई वह सेना उस समय दिशाओंसम्बन्धी संशयकी द्विविधताको प्राप्त हो रही थी अर्थात् उसे इस बातका संशय हो रहा था कि पूर्वदिशा कौन है ? और पश्चिम दिशा कौन है ? ॥१९॥ तदनन्तर जिनमें घास और पानी अधिक है ऐसे कितने ही मुकाम चलकर महाराज
१ निर्मितेव । २ केनचित् पुरुषेण । ३ परमागमः । ४ ऋजुत्वं गतेव । 'उल्लाघो निर्गतो गदात्' । ५ शोधितान्तरा ल० । ६ गुहाम् । ७ सेनापतिसमन्विते । ८ सिन्धुनदीप्रवाहं वर्जयित्वा । परिशब्दस्य वर्जनार्थत्वात् । ९ पश्चात् पूर्वापर । १० अगच्छत् । ११ द्विप्रकारवती । १२ नियमिता । १३ संशयभेदं संशयविनाशं वा । १४ उपदेशाश्रयं वा संशयभेदं प्राप । पूर्वादिदिग्भेदे सेना सम्देहवती जातेत्यर्थः । १५ तृण, घास । 'घासो यवसं तृणमर्जुमि' त्यभिधानात् । १६ गुहानामर्द्धप्रमिताम् । १७ अत्यगात् ।
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