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आदिपुराणम्
अत्रान्तरे' गिरीन्द्रेऽस्मिन् व्यापारितदृशं प्रभुम् । विनोदयितुमित्युचैः पुरोधा गिरमभ्यधात् ॥ १०१ ॥ हिमवानयमुत्तुङ्गः संगतः सततं श्रिया । कुलक्षोणीभृतां धुर्यो धत्ते युष्मदनुक्रियाम् ॥ ११०॥ अहो महानयं शैलो दुरारोहो दुरुत्तरः" । शरसंधानमात्रेण सिद्धो युष्मन्महोदयात् ॥ १११ ॥ चित्रैरलंकृता रत्रैरस्य श्रेणी हिरण्मयी । शतयोजनमात्रोच्चा टङ्कच्छिन्नेव भात्यसौ ॥ ११२ ॥ स्त्रपूर्वापरकोटिभ्यां विगाह्य लवणार्णवम् । स्थितोऽयं गिरिराभाति मानदण्डायितो भुवः ॥ ११३ ॥ "द्विर्विस्तृतोऽयमद्रीन्द्रो भरताद् भरतर्षभ । मूले चोपरिभागे च तुल्यविस्तारसंमतिः ॥११४॥ अस्यानुसानु रम्येयं वनराजी विराजते । शश्वदध्युषिता सिद्धविद्याधरमहोरगैः ॥ ११५ ॥
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तटाभोगा विभान्त्यस्य ज्वलन्मणिविचित्रिताः । चित्रिता इव संक्रान्तैः स्वर्वधूप्रतिस्त्रिकैः ॥ ११६॥ पर्यटन्ति तदेवस्य सप्रेयस्यो " नभश्चराः । स्वैरसंभोगयोग्येषु हारिभिर्रुतिकागृहैः ॥ ११७ ॥ विवि रमणीयेषु सानुष्वस्य धृतोत्सवाः । न धृतिं दधतेऽन्यत्र गीर्वाणाः साप्सरोगणाः ॥ ११८ ॥
पर्वतको भरतने बहुत कुछ माना था - आदरकी दृष्टि से देखा था ।। १०८ ।। इसी बीच में, जब कि महाराज भरत अपनी दृष्टि हिमवान् पर्वतपर डाले हुए थे उसकी शोभा निहार रहे थे तब पुरोहित उन्हें आनन्दित करनेके लिए नीचे लिखे अनुसार उत्कृष्ट वचन कहने लगा ॥ १०९ ॥ हे प्रभो, यह हिमवान् पर्वत बहुत ही उत्तुंग अर्थात् ऊँचा है, सदा श्री अर्थात् शोभासे सहित रहता है और कुलक्षोणीभृत् अर्थात् कुलाचलों में श्रेष्ठ है इसलिए आपका अनुकरण करता है - आपकी समानता धारण करता है क्योंकि आप भी तो उत्तुंग अर्थात् उदारमना हैं, सदा श्री अर्थात् राज्यलक्ष्मीसे सहित रहते हैं और कुलक्षोणीभृत् अर्थात् वंशपरम्परासे आये हुए राजाओं में श्रेष्ठ हैं ॥ ११० ॥ अहा, कितना आश्चर्य है कि यह बड़ा भारी पर्वत, जो कि कठिनाईसे चढ़ने योग्य है और जिसका पार होना अत्यन्त कठिन है, डोरीपर बाण रखते ही आपके पुण्य प्रतापसे आपके वश हो गया है ।। १११ ॥ इसकी सुवर्णमयी श्रेणी अनेक प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित हो रही है, सौ योजन ऊँची है और ऐसी जान पड़ती है मानो टाँकीसे गढ़ कर ही बनायी गयी हो ।। ११२ ।। अपने पूर्व और पश्चिमके कोणोंसे 'लवण समुद्र में प्रवेश कर' पड़ा हुआ यह पर्वत ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो पृथिवीके नापनेका एक दण्ड ही हो ।। ११३ ।। हे भरतश्रेष्ठ, यह श्रेष्ठ पर्वत भरतक्षेत्र से दूने विस्तारंवाला है और मूल, मध्य तथा ऊपर तीनों भागों में इसका समान विस्तार है ।। ११४ ।। जिसमें सिद्ध, विद्याधर और नागकुमार निरन्तर निवास करते हैं ऐसी यह मनोहर वनकी पंक्ति इस पर्वतके प्रत्येक शिखरपर शोभायमान हो रही है ॥ ११५ ॥ देदीप्यमान मणियोंसे चित्र-विचित्र हुए इस पर्वत के किनारे के प्रदेश बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे हैं और भीतर पड़ते हुए देवांगनाओंके प्रतिबिम्बों से ऐसे जान पड़ते हैं मानो उनमें अनेक चित्र ही खींचे गये हों ।। ११६ ।। सुन्दर लतागृहोंसे अपनी इच्छानुसार उपभोग करने योग्य इस पर्वतके किनारोंपर अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ विद्याधर लोग टहल रहे हैं ।। ११७ ॥ जो देव लोग अपनी अप्सराओंके साथ इस पर्वत के निर्जन पवित्र और रमणीय किनारोंपर क्रीड़ा कर लेते हैं फिर उन्हें किसी दूसरी जगह सन्तोष नहीं होता
१ अस्मिन्नवसरे । २ श्रीदेव्या लक्ष्म्या च । ३ मुख्यः । ४ तवानुकरणम् । ५ अवतरितुमशक्यः । १० सानुविस्ताराः ।
६ राद्धो ल० । ७ द्विगुणविस्तारः । ११ प्रियतमासहिताः । १२ पवित्र ।
८ भरतश्रेष्ठ । ९ तुल्या विस्तार-ल०, ६० । 'वित्रिवती पूतविजन' इत्यभिधानात् ।