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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
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धेहि' देव ततोsस्मासु प्रसादतरलां दशम् । स्वामिप्रसादलामो हि वृत्ति लामो ऽनुजीविनाम् ॥१००॥ निदेश रुचितैवास्मान् संभावयितुमर्हसि । वृत्तिलाभादपि प्रायस्तल्लामः किंकरैर्मतः ॥ १०१ ॥ मानयनिति तद्वाक्यं स तानमरसत्तमान् । व्यसर्जयत्स्वसात्कृत्य यथास्वं कृतमाननान् ॥ १०२ ॥ हिमवज्जयशंसीनि मङ्गलान्यस्य किन्नराः । जगुस्तत्कुञ्ज देशेषु स्वैरमारब्धमूर्च्छना ॥१०३॥ असकृत् किन्नर स्त्रीणामाधुन्वानाः स्तनावृतीः । सरोवीचिभिदो मन्दमाववुस्तद्वनानिलाः ॥ १०४ ॥ स्थलाब्जिनीवनाद्विष्वक किरन् किंजल्कजं रजः । हिमी हिमाद्रिकुञ्जेभ्यस्तं सिषेवे समीरणः ॥ १०५ ॥ स्थलाम्भोरुहिणीवास्य कीर्तिः साकं " जयश्रिया । हिमाचलनिकुञ्जेषु पप्रथे " दिग्जयार्जिता ॥ १०६ ॥ हिमाचलस्थलेष्वस्य धृतिरासीत् प्रपश्यतः । कृतोपहारकृत्येषु' ' स्थलाम्भोजैर्विकस्वरैः ॥ १०७ ॥ तमुच्चैर्वृत्तिमाक्रान्तदिक्चक्रं विष्टतायतिम् । स्वमिवानल्परत्वद्धिं हिमाद्रि बहुमंस्त" सः ॥ १०८ ॥ कर रहे हैं ॥९९॥ इसलिए हे देव, हम लोगोंपर प्रसन्नता से चंचल हुई दृष्टि डालिए क्योंकि स्वामीकी प्रसन्नता प्राप्त होना ही सेवक लोगोंकी आजीविका प्राप्त होना है । भावार्थ - स्वामी लोग सेवकोंपर प्रसन्न रहें यही उनकी उचित आजीविका है ॥१००॥ हे स्वामिन्, आप उचित आज्ञाओं के द्वारा हम लोगों को सन्मानित करनेके योग्य हैं अर्थात् आप हम लोगोंको उचित आज्ञाएँ दीजिए क्योंकि सेवक लोग स्वामीकी आज्ञा मिलनेको आजीविका ( तनख्वाह ) की प्राप्ति से भी कहीं बढ़कर मानते हैं ।। १०१ ।। इस प्रकारके उस देवके वचनोंकी प्रशंसा करते हुए भरतने उन सब उत्तम देवोंका सत्कार किया और सबको अपने अधीन कर बिदा कर दिया ।। १०२ ।। उस समय अपने इच्छानुसार स्वरोंका चढ़ाव उतार करनेवाले किन्नर देव उस पर्वतके लतागृहों के प्रदेशों में 'भरतने हिमवान् देवको जीत लिया है' इस बातको सूचित करनेवाले मंगलगीत गा रहे थे ।। १०३ ।। उस समय वहाँ किन्नर देवोंकी स्त्रियोंके स्तन ढकनेवाले वस्त्रों को बार-बार हिलाता हुआ तथा तालाबकी तरंगोंको छिन्न-भिन्न करता हुआ उस हिमवान् पर्वतके वनोंका वायु धीरे-धीरे बह रहा था ।। १०४ ॥ स्थल-कमलिनियोंके वनके चारों ओर केशरसे उत्पन्न हुआ रज फैलाता हुआ तथा हिमवान् पर्वतके लतागृहोंसे आया हुआ शीतल वायु महाराज भरतकी सेवा कर रहा था ।। १०५ ।। दिग्विजय करनेसे प्राप्त हुई भरतकी कीर्ति जयलक्ष्मी के साथ-साथ स्थलकमलिनियोंके समान हिमवान् पर्वतके लतागृहों में फैल रही थी ।। १०६ ।। जिन्होंने फूले हुए स्थल-कमलोंसे उपहारका काम किया है ऐसे हिमवान् पर्वतके स्थलोंमें चारों ओर देखते हुए भरतको बहुत ही सन्तोष होता था ।। १०७ ॥ वहं हिमवान् पर्वत ठीक भरतके समान था क्योंकि जिस प्रकार भरत उच्चैर्वृत्ति अर्थात् उत्कृष्ट व्यवहार धारण करनेवाले थे उसी प्रकार वह पर्वत भी उच्चैर्वृत्ति अर्थात् बहुत ऊँचा था, जिस प्रकार भरतने अपने तेजसे समस्त दिशाएं व्याप्त कर ली थीं उसी प्रकार उस पर्वतने भी अपने विस्तारसे समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली थीं, जिस प्रकार भरत आयति अर्थात् उत्तम भवितव्यता ( भविष्यत्काल ) धारण करते थे उसी प्रकार वह पर्वत भी आयति अर्थात् लम्बाई धारण कर रहा था और जिस प्रकार भरतके पास अनेक रत्नरूपी सम्पदाएँ थीं उसी प्रकार उस पर्वतके पास भी अनेक रत्नरूपी सम्पदाएँ थीं । इस प्रकार अपनी समानता रखनेवाले उस हिमवान्
१ कुरु । २ जीवितलाभः । ' आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने' इत्यभिधानात् । ३ सेवकानाम् । ४ शासनैः । 'अपवादस्तु निर्देशो निदेशः शासनं च सः । शिष्टिश्चाज्ञा च' इत्यभिधानात् । ५ आज्ञालाभः । ६ पूजयन् । ७ तद्देवस्य वचनम् । ८ हिमवन्निकुञ्जप्रदेशेषु । 'निकुञ्जकुञ्जौ वा क्लीबे लतादिपिहितोदरे' इत्यभिधानात् । ९ उरोजाच्छादनवस्त्राणि । १० सह । 'साकं सत्रा समं सह' इत्यभिधानात् । ११ प्रकृष्टोऽभवत् । १२ विहितपुष्पोपहारव्यापारेषु । १३ धृतधनागमम् । १४ बहुमानमकरोत् ।
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