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द्वात्रिंशत्तमं पर्व
११६ निस्सपत्नां महीमेनां कुर्वसर्वानिधीश्वरः । आ हिमाद्रितटा भूयः प्रयाणमकरोद् बलैः ॥७॥ सिन्धुरोधोभुवः क्षुन्दन प्रयाणे जयसिन्धुरैः सिन्धुप्रपात मासीदन्" सिन्धुदेव्या न्यषेचि सः ॥७॥ ज्ञात्वा समागतं जिष्णुं देवि स्वावासगोचरम् । उपयाय समुद्धस्य रत्नाघं सपरिच्छदा ॥८॥ पुण्यैः सिन्धु जलैरेनं हेमकुम्भशतोद्ध तैः । साभ्यषिञ्चत् स्वहस्तेन मद्रासननिवेशितम् ॥१॥ कृतमङ्गलनेपथ्यमभ्यनन्दज्जयाशिषा । देव त्वदर्शनादद्य पूताऽस्मीत्यवदच्च तम् ॥२॥ तत्र भद्रासनं दिव्यं लब्ध्वा तदुपढौकितम् । कृतानुव्रजनां° किंचित् सिन्धुदेवीं व्यसर्जयत् ॥८३॥ हिमाचलमनुप्राप्तस्तत्तटानि जयं'' जयम् । कैश्चित्प्रयाणकैः प्रापत् हिमवत्कूटसंनिधिम् ॥४॥ पुरोहितसखस्तन कृतोपवसनक्रियः । अध्यशेत शुचिं शय्यां दिव्यास्त्राण्यधिवासयन् ॥८५॥ विधिरेष न चाशक्तिरिति संभावितो नृपैः । स राज्यमकरोच्चापं "वज्रकाण्डमयत्नतः ॥८६॥ तत्रामोघं शरं दिव्यं समधत्तोर्ध्वगामिनम् । वैशाखस्थानमास्थाय' स्वनामाक्षरचिह्नितम् ॥८७॥
मुक्तसिंहप्रणादेन यदा मुक्तः शरोऽमुना" । तदा सुरगणैस्तुष्टैर्मुक्तोऽस्य कुसुमांजलिः ॥८॥ की ॥७७। इस समस्त पृथिवीको शत्रुरहित करते हुए प्रथम निधिपति-चक्रवर्तीने फिर अपनी सेनाके साथ-साथ हिमवान् पर्वतके किनारे तक गमन किया ॥७८॥ गमन करते समय अपने विजयी हाथियोंके द्वारा सिन्धु नदीके किनारेकी भूमिको खूदते हुए भरतेश्वर जब सिन्धुप्रपातपर पहुंचे तब सिन्धु देवीने उनका अभिषेक किया ॥७९॥ वह देवी भरतको अपने निवासस्थानके समीप आया हुआ जानकर रत्नोंका अर्घ लेकर परिवारके साथ उनके पास आयी थी ॥८०॥ और उसने अपने हाथसे सुवर्णके सैकड़ों कलशोंमें भरे हुए सिन्धु नदीके पवित्र जलसे भद्रासनपर बैठे हुए महाराज भरतका अभिषेक किया था ॥८१।। अभिषेक करनेके बाद उस देवीने मंगलरूप वस्त्राभूषण पहने हुए महाराज भरतको विजयसूचक आशीर्वादोंसे आनन्दित किया तथा यह भी कहा कि हे देव, आज आपके दर्शनसे मैं पवित्र हुई हूँ ॥८२।। वहाँ उस सिन्धु देवीका दिया हुआ दिव्य भद्रासन प्राप्त कर भरतने आगेके लिए प्रस्थान किया और कुछ दूर तक पीछे-पीछे आती हुई सिन्धु देवीको बिदा किया ।।८३॥ हिमवान् पर्वतके समीप पहुँचकर उसके किनारोंको जीतते हुए भरत कितने ही मुकाम चलकर हिमवत् कूटके निकट जा पहुँचे ।।८४॥ वहाँ उन्होंने पुरोहितके साथ-साथ उपवास कर और दिव्य अस्त्रोंकी पूजा कर डाभकी पवित्र शय्यापर शयन किया ॥८५॥ अस्त्रोंकी पूजा करना यह एक प्रकारकी विधि ही है, कुछ चक्रवर्तीका असमर्थपना नहीं है, ऐसा विचार कर राजाओंने जिनका सन्मान किया है ऐसे भरतराजने बिना प्रयत्नके ही अपना वज्रकाण्ड नामका धनुष डोरीसे सहित किया ॥८६।। और वैशाख नामका आसन लगाकर अपने नामके अक्षरोंसे चिह्नित तथा ऊपरकी ओर जानेवाला अपना अमोघ ( अव्यर्थ ) दिव्य बाण उस धनुषपर रखा ॥८७॥ जिस समय सिंहनाद करते हुए भरतने वह बाण छोड़ा था उस समय देवोंके समूहने सन्तुष्ट होकर उनपर फूलोंकी अंजलियाँ छोड़ी थीं, अर्थात् फूलोंकी वर्षा की थी॥८८।। १ उत्कृष्टनिधिपतिः । 'वरे त्वर्वागि'त्यभिधानात् । २ सिन्धुनदीतीरभूमीः। ३ संचूर्णयन् । ४ सिन्धुनदीपतनकुण्डम् । ५ आगच्छन् । ६ न्यषेवि द० । सेवते स्म । ७ उपाययौ। ८ सपरिकरा। ९ पवित्रः । १० विहितानुगमनाम् । ११ जयन् जयन् ल०, अ०, इ० । जयं जयन् प०, स०। १२ हिमवन्नामकूट । १३ अधिशेते स्म । १४ मन्त्रैरभिपूजयन् । १५ शक्यभावो न । १६ मौर्वीसहितम् । १७ संधानमकरोत् । १८ वैशाखस्थाने स्थित्वा, वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वये विशाखः, तथा चोक्तं धनुर्वेदे। वामपादप्रसारे दक्षिणसंकोचे प्रत्यलीढं दक्षिणजंघाप्रसारे वामसंकोचे चालीढम् । तुल्यपादयुगम् समपदम् । वितस्त्यन्तरेण स्थिते पादद्वारे विशाबः, मण्डलाकृति पादद्वयं मण्डलम् । १९ चक्रिणा।