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आदिपुराणम प्रसाधितदिशो यस्य यशः शशिकलामलम् । सुरैरसकृदुद्गीतं कुलक्षोणीध्रकुक्षिषु ॥१५॥ दिग्जय यस्य सैन्यानि विश्रान्तान्य धिदिक्कटम् । चक्रानुभ्रान्तितान्तानि कान्वा हैमवतीस्थलीः ॥१५२॥ नप्ता श्रीनाभिराजस्य पुत्रः श्रीवृषभशिनः । षट्षण्डमण्डितानां यः स्म शास्त्यखिलां महीम् ॥१५३॥ मत्वाऽसौ गवरी लक्ष्मी जित्वरः सर्वभूभृताम् । जगद्विसत्वरी कीर्तिमतिष्टिपदिहाचले ॥१५४॥ इति प्रशस्तिमात्मीयां विलिखन स्वयमक्षरैः । प्रसूनप्रकरमुक्कैर्नुपोऽवचकिरऽ मरैः ॥१५५॥ तत्रोच्चै रुञ्चरद्ध्वाना मन्द्रदुन्दुभयोऽध्वनन् । दिवि देवा जयंत्याशीश्शताप्युच्चैरघोषयन् ॥५६॥ स्वधुनीसीकरासारवाहिनो गन्धवाहिनः । मन्दं-विचेहराधूत सान्द्रमन्दारनन्दनाः ॥१५७॥ न केवलं शिलाभित्तावस्य नामाक्षरावली । लिखितानेन चान्द्रऽपि बिम्बे तल्लान्छनच्छलात् ॥१५॥ लिखितं साक्षिणे भुक्तिरित्यस्तीहापि शासने । लिखितं सोऽचलो भुक्तिर्दिजये साक्षिणोऽमराः ॥१५९॥ अहो महानुभावोऽयं चक्री दिक्चक्रनिर्जये । येनाक्रान्तं महीचक्रमानवसतित्रिकात् ॥१६॥ खचरादिरलयोऽपि हेलयालवितोऽमुना । कीर्तिः स्थलाजिनीवास्य रूढा हमाचलस्थले ॥१६॥
हैं, जिसकी दिग्विजयके समय चारों ओर उठी हुई कबूतरके गलेके समान कुछ-कुछ मलिन सेनाकी धूलिसे समस्त दिशाओंके साथ-साथ आकाश भर जाता है, समस्त दिशाओंको वश करनेवाले जिसका चन्द्रमाकी कलाओंके समान निर्मल यश कुलपर्वतोंके मध्यभागमें देव लोग बारबार गाते हैं, दिग्विजयके समय चक्रके पीछे-पीछे चलनेसे थकी हुई जिसकी सेनाओंने हिमवान् पर्वतकी तराईका उल्लंघन कर दिशाओंके अन्तभागमें विश्राम लिया है, जो श्री नाभिराजका पौत्र है, श्री वृषभदेवका पुत्र है, जिसने छह खण्डोंसे सुशोभित इस समस्त पृथिवीका पालन किया है और जो समस्त राजाओंको जीतनेवाला है ऐसे मुझ भरतने लक्ष्मीको नश्वर समझकर जगत्में फैलनेवाली अपनी कीतिको इस पर्वतपर स्थापित किया है ।। १४६ - १५४ ॥ इस प्रकार चक्रवर्तीने अपनी प्रशस्ति स्वयं अक्षरोंके द्वारा लिखी, जिस समय चक्रवर्ती उक्त प्रशस्ति लिख रहे थे उस समय देव लोग उनपर फूलोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ १५५ ॥ वहाँ जोर-जोरसे शब्द करते हुए गम्भीर नगाड़े बज रहे थे, आकाशमें देव लोग जय-जय इस प्रकार सैकड़ों आशीदि रूप शब्दोंका उच्चारण कर रहे थे ।। १५६ ॥ और गंगा नदीके जलकी बूंदोंके समूहको धारण करता हुआ तथा कल्पवृक्षोंके सघन वनको हिलाता हुआ वायु धीरे-धीरे बह रहा था ॥१५७॥ भरतके नामके अक्षरोंकी पंक्ति केवल शिलाकी दीवारपर ही नहीं लिखी गयी थी किन्तु उन्होंने काले चिह्नके बहानेसे चन्द्रमाके मण्डलमें भी लिख दी थी। भावार्थ - चन्द्रमाके मण्डल में जो काला-काला चिह्न दिखाई देता है वह उसका चिह्न नहीं है, किन्तु भरतके नामके अक्षरोंकी पंक्ति ही है, यहाँ कविने अपह्नति अलंकारका आश्रय लेकर वर्णन किया है ॥१५८॥ अन्य प्रशस्तियोंके समान भरतकी इस प्रशस्तिमें भी लेख, साक्षी और उपभोग करनेयोग्य क्षेत्र ये तीनों ही बातें थीं क्योंकि लेख तो वृषभाचलपर लिखा ही गया था, दिग्विजय करनेसे छह खण्ड भरत उपभोग करनेयोग्य क्षेत्र था और देव लोग साक्षी थे ॥ १५९ ।। अहा, यह चक्रवर्ती बड़ा प्रतापी है क्योंकि इसने समस्त दिशाओंको जीतते समय पूर्व पश्चिम और दक्षिणके तीनों समुद्रपर्यन्त समस्त भूमण्डलपर आक्रमण किया है - समस्त भरतको अपने वश कर लिया है। यद्यपि विजयार्ध पर्वत उल्लंघन करनेयोग्य नहीं है तथापि इसने
१ चक्रानुगमनेन भिन्नानि । २ गमनशीलाम् । ३ जयनशीलः । ४ विसरणशीलाम् । ५ व्यलिखत् ल०, अ०, द०, स० । ६ आकीर्णः । ७ - राष्मात ल० । ८ पत्रम् । ९ पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रपर्यन्तम् ।