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द्वात्रिंशन्तम पर्व
११५ नायकैः सममन्याः प्रभुर्गजघटावृतः । महापथेन तेनैव जलदुर्ग व्यलङ्घयत् ॥३२॥ ततः कतिपयैरेव प्रयाणैरतिवाहितैः' । गिरिदुर्ग विलंध्योदग्ग्रहाद्वारमवासदत् ॥३३॥ निरर्गलीकृतं द्वार पौरस्त्यैरिभसाधनैः । व्यतीत्य प्रभुरस्याद्रेर युवास वनावनिम् ॥३४॥ अधिशय्य गुहागर्म चिरं,मातुरिवोदरम् । लब्धं जन्मान्तरं मेने निःसृतैः सैनिकैर्बहिः ॥३५॥ गुहेयमतिगृध्येव गिलित्वा जनतामिमाम् । जरणाशक्तिो नूनमुज्जगाल बहिः पुनः ॥३६॥ व्यजनैरिव शाखागैर्वीजयन् वनवीरुधाम् । गुहोष्मणां चिरं खिन्नां चमूमाश्वासयन्मरुत् ॥३७॥ तद्वनं पवनाधूतं चलच्छाखाकरोत्करैः । प्रभोरुपागमे तोषामनतॆव तार्तवम् ॥३८॥ पूर्ववत् पश्चिमे खण्डे बलापण्या प्रसाधिते । विजे→ मध्यमं खण्डं साधनैः प्रभुरुययौ ॥३९॥ न करैः पीडितो लोको न भुवः शोषितो रसः । नार्केणेव जनस्तप्तः प्रभुणाऽभ्युद्यताप्युदक' ॥४०॥ कौबेरी दिशमास्थाय'तपत्येकान्ततः करः । मानुर्भरतराजस्तु भुवस्तापमपाकरीत् ॥४१॥
कृतब्यूहानि सैन्यानि संहतानि परस्परम् । नातिभूमिं ययुर्जिप्णोर्न स्वैरं परिबभ्रमुः ॥४२॥ पर जा पहुँची ॥३१॥ दूसरे दिन हाथियों के समूहसे घिरे हुए महाराज भरतने अनेक राजाओंके साथ-साथ उसी जलमय महामार्गसे कठिन रास्ता तय किया ॥३२॥ तदनन्तर कितने ही मुकाम चलकर और उस पर्वतरूपी दुर्ग (कठिन मार्ग) को उल्लंघन कर वे उस गुफाके उत्तर द्वारपर जा पहुँचे ॥३३॥ आगे चलनेवाली हाथियोंकी सेनाके द्वारा उघाड़े हुए उत्तर द्वारको उल्लंघन कर चक्रवर्तीने विजया पर्वतके वनकी भूमिमें निवास किया ॥३४॥ माताके उदरके समान गुहाके गर्भ में चिरकाल तक निवास कर वहाँसे बाहर निकले हुए सैनिकोंने ऐसा माना था मानो दूसरा जन्म ही प्राप्त हुआ हो ॥३५॥ सेनाको बाहर प्रकट करती हुई वह गुफा ऐसी जान पड़ती थी मानो पहले वह बड़ी भारी तृष्णा इस मनुष्य-समूहको निगल गयी थी परन्तु पचानेकी शक्ति न होनेसे अब उसे फिर बाहर उगल रही हो ॥३६॥ उस समय पंखोंके समान वनलताओंको शाखाओंके अग्रभागसे हवा करता हुआ वायु ऐसा जान पड़ता
था मानो चिरकाल तक गफाकी गरमीसे दुःखी हई सेनाको आश्वासन ही दे रहा हो ॥३७॥ जिसने ऋतु-सम्बन्धी अनेक फल-फूल धारण किये हैं और जो वायुसे हिल रहा है ऐसा वह वन उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो चक्रवर्तीके आनेपर सन्तुष्ट होकर हिलते हुए अपने शाखा रूपी हाथोंके समूहसे नृत्य ही कर रहा हो ॥३८॥ जब सेनापति पहलेकी तरह यहाँके भी पश्चिम म्लेच्छ खण्डको जीत चुका तब महाराज भरत अपनी सेनाओंके द्वारा मध्यम म्लेच्छ खण्डको जीतनेके लिए उद्यत हुए ॥३९॥ यद्यपि भरत सूर्यके समान उत्तर दिशाकी ओर निकले थे तथापि जिस प्रकार सूर्य अपने कर अर्थात किरणोंसे लोगोंको पीडित करता है. पथिवीका रस अर्थात् जल सुखा देता है, और मनुष्योंको सन्तप्त करता है उस प्रकार उन्होंने अपने कर अर्थात् टेक्ससे लोगोंको पीड़ित नहीं किया था, पृथिवीका रस अर्थात् आनन्द नहीं सुखाया था-नष्ट नहीं किया था और न मनुष्योंको सन्तप्त अर्थात् दुःखी ही किया था ॥४०॥ सूर्य उत्तर दिशामें पहुँचकर अपनी किरणोंसे सन्ताप करता है परन्तु महाराज भरतने पृथिवीका सन्ताप दूर कर दिया था ॥४१।। जिनमें अनेक व्यहोंकी रचना की गयी है और जो परस्परमें मिली हुई हैं ऐसी भरतकी सेनाएँ न तो उनसे बहुत दूर ही जाती थीं और न स्वच्छन्दतापूर्वक १ अपनीतैः । २ उत्तरगुहाद्वारम् । ३ पुरोगतः । ४ वनभूमिम् । ५ मन्यते स्म । ६ अतिवाञ्छया। ७ निगरणं कृत्वा । ८ जरणशक्त्यभावात् । ९ उगिलति स्म । १० ऋतौ भवम् आर्तवम् पुष्पादि । धृतमातवं येन तत् । ११ उत्तरदिगभागः । १२ उत्तरस्यां दिशि स्थित्वा। १३ नितराम् । १४ विहितरचनानि । १५ संबद्धानि मिलितानि वा।